Thursday, October 10, 2013

तुम्हे पाने के लिए ,
घर छोड़ने से कहीं पहले,
मैं जानता था,
मुझे तय करना है ,
एक वीरान रेगिस्तान |
रख लिए थे पहले ही
गुड,चना और थोडा सा पानी
पांवो में पहन लिए थे जूते भी
आँखों पर चढ़ा लिए थे ,
रंगीन चश्मे ,कि
दीखती रहे ,दुनिया हरी हरी |
कौन जाने ?
मिलकर लौटते हुए ,
पाँव तप जाएँ ,
आँख जलती सी लगे |
२. रोजों में थूक निगल
इमान से खारिज़ मैं,
लौट आया हूँ वापिस ख़ाली हाथ ,
जूते उतार दियें हैं ,
चश्मा रख दिया है ताक में ,
बचे हुए पानी से
आँख से किरच निकालनी है
कि ,सो सकूं
तुम्हारी पुकारती
आँखों के

सपने देखते |

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