Thursday, October 10, 2013

दरअसल,यह बात उनदिनों के बारे में है,
जब आपके अस्तित्व का बड़ा हिस्सा अँधेरे में कलाबाजियां खा रहा होता है,और
आप सड़क पर चलते मज़मा देखने को रुके,
आम राहगीर से अधिक कुछ नहीं कर सकते .

यह अमूमन ऐसे दिन होते हैं,
जब आप घर से शांति और सुख ढूँढने को निकलते हैं,और
नीम की दातुन चबाते हुए लौटते हैं .

यह बात उनदिनों के बारे में है,जब
विषाद अगस्त के घने बादलों की तरह आपको ढक रहा होता है,और
आप छातों से डरने लगते हैं,
एक तनाव भरी चुप्पी परछाई सी साथ चलती है
दरअसल यह दिन देह और आत्मा की कुट्टी के दिन होते हैं,
दो बच्चे आपके भीतर लड़ झगड बैठ जाते हैं,और
अपने होंठों पर एक ऊँगली चिपका लेते हैं .

ज़िन्दगी से हारने का डर काली छाया सा साथ रहता है रात भर,
मौत के अंतिम क्षणों की छटपटाह्ट ,और,
हताशा की एक हूक आपके भीतर दही मथती मधानी सी घूमती है,
घुप्प अँधेरे में चुप्पी साधे बैठे आप,
कुर्सी पर बैठे एक पुरुष के छाया को दीवार पर छपा देखते हैं,और
अचानक महसूस करते हैं उसकी गर्दन एक ओर लुढकी है,

यकीनन ...........नींद से !

आपकी यादें धुंधला जाती हैं,कि
आप कुछ याद करना ही नहीं चाहते,
एक मीठी सी ऊँघ में,
चलते आप एक वीरान गलियारे के अंतिम सिरे तक जाते हैं,और
अपने अंदर देखते हैं .

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