Thursday, October 10, 2013

दरअसल आजकल मेरे भीतर एक उबलते मौन के सिवा कुछ नहीं .

एक नितांत दिग्भ्रमित दृष्टि से मैं अंदर झांकता हूँ
वहां किसी पांव के पीछे छूटे निशान हैं ,
गर्मियों की एक लम्बी सूनी दोपहर सा वीराना ,
सीने का कोई चोर रास्ता खोल दाख़िल होता है
पसरी देह की नीली नसों से बहते एकांत को छलनी से छानता हूँ,
देह की दराजों से छलकता एक अन्धकार,
रास्तों पर अगले उत्सुक मील पत्थर सा खड़ा है .

जहाँ गलियारा ख़त्म होता है,
वहां से भूरे से काला होता आकाश दीखता है,
आधी रोटी सा चाँद आकाश की तरफ बुलाता है,
एक आवेग भीतर भीतर लहराता है ,और
कहीं भी ना जा सकने की थकन में डूबे पाँव,
आत्मा को काले आकाश की ओर जाने देते हैं ,दीगर
तुम इसे शुक्र कहते हो और मैं कुछ भी नहीं .

चाहे हुए एकांत की बगल में उगते हैं कत्थई गुलाब ,
टपके हुए एकांत में उड़ते हैं आक के फूल,
देर तक इनके पीछे दौड़ते तुम पकड़ लेते इन्हें ,और
हल्के हो जाते हो फूल के भार से भी,
बस एक पिघलता ,बीमार ग्लेशिअर तुम्हारे सीने पर पड़ा रहता है,
तुम्हारे अंतिम बूँद हो कर फर्श और दरवाजे की झिर्री से बह निकलने तक .

सीमान्त आद्रता से भरी आँखें,
क्षमा याचना में इश्वर के सामने घुटने टेके बैठे तुम ,
एक अभंग चुप्पी को अडोल जीते हो,
गहरी काली रात के सफेद होने तक,
एक ना दिया ,एक ना लिए चुम्बन तुम्हारे होंठों पर दहकता रहता है,
जुगनू की सी एक लाल रौशनी,
तुम्हारे चेहरे को पोतती रहती है,
अन्तस् की कालिमा से जुगनू की उजास के रंगों तक .

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