मैंने बहुत बार चाहा,
अपनी देह को चीर दूं आरे से निकलते शहतीर की तरह,और
देह के दोनों हिस्सों से चुन लूं एक,
जो सच में मेरा है .या कि
जी भर जीऊँ विदेह हो तुम्हारे साथ .
सघन विह्वलता के इनदिनों में,
जब उदासी ,अविश्वास और आशंका के जीवाणु,
फफूंद की तरह बार बार जन्म लेते हैं,
मैं केवल देखता हूँ,
ईश्वर की सभी कृतियों को,और
ओढ़ लेता हूँ अस्थायी मृत्यु की स्लेटी चादर .
मुझे कभी लगता भी है,
अपने ईश्वर होने की तरह,
जिसकी सृजित दुनिया भरहरा कर गिर पड़ी हो उसके ऊपर,और
देवता सुन रहें हों विध्वंस और आर्तनाद के स्वर,
मुस्कुराते हुए .
अदमित स्मृतियों के झरनों के बीच,
पानी की आँख पर उगते हैं नमकीन फफोले,
मैं इन दिनों देखता हूँ एक स्वप्न,
जिसके लिए कत्तई जरुरी होता नहीं सोना,और
भर लेता हूँ आकाश को अपनी बाँहों में .
(आकाश ! तुम्हारे असंख्य नामों से मुझे याद नहीं एक भी नाम )
अपनी देह को चीर दूं आरे से निकलते शहतीर की तरह,और
देह के दोनों हिस्सों से चुन लूं एक,
जो सच में मेरा है .या कि
जी भर जीऊँ विदेह हो तुम्हारे साथ .
सघन विह्वलता के इनदिनों में,
जब उदासी ,अविश्वास और आशंका के जीवाणु,
फफूंद की तरह बार बार जन्म लेते हैं,
मैं केवल देखता हूँ,
ईश्वर की सभी कृतियों को,और
ओढ़ लेता हूँ अस्थायी मृत्यु की स्लेटी चादर .
मुझे कभी लगता भी है,
अपने ईश्वर होने की तरह,
जिसकी सृजित दुनिया भरहरा कर गिर पड़ी हो उसके ऊपर,और
देवता सुन रहें हों विध्वंस और आर्तनाद के स्वर,
मुस्कुराते हुए .
अदमित स्मृतियों के झरनों के बीच,
पानी की आँख पर उगते हैं नमकीन फफोले,
मैं इन दिनों देखता हूँ एक स्वप्न,
जिसके लिए कत्तई जरुरी होता नहीं सोना,और
भर लेता हूँ आकाश को अपनी बाँहों में .
(आकाश ! तुम्हारे असंख्य नामों से मुझे याद नहीं एक भी नाम )
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