Thursday, October 10, 2013

"बात करने से पीड़ा कम हो जाती है ,पर कविता मर जाती है |"कह कर कवि ने संवाद के सारे रास्ते बंद कर दिए |खुरदरी ज़मीन के ऊपर,पश्चाताप की दूब थी| वह जानता था यह दूब बहुत दिन नरम नहीं रहेगी |पर भीतर बैठा कोई कह रहा था,अंतिम दिन भी तुम यहाँ आओगे ,तो तुम्हे फूल जैसी घास के तिनके मिलेंगे | इस कोने में,अकेले बैठे तुम चबाते रहना ....घास का अंतिम सिरा और घुमा कर देखना घास के फूल को भी |तुम्हारी दो कनपटियोंमें से एक गूँज रही होगी मौन से ....दूसरी कोलाहल से :-

संकरी नदी के मुहाने पर बैठ,
उसने जाना,
समुद्र को आता ही नहीं,
प्रेम में होना,और करना प्रतीक्षा,
नदी के उस तक पहुँचने की,
चलते -चलते ही जान गया था वह,
प्रेम और कुछ नहीं,
प्रतीक्षा का अनंत विस्तार है |

हमारी शपथें और प्रतिश्रुतियां,
हमारी प्रतीक्षाओं जितना ही रहते हैं,
भूमि और व्योम के बीच,
असंभव मिलन के क्षणों का,
साक्षी भर होने को,की उसके बाद,
सांस समझ जाती है,
कैसे मिलाये लय दूसरी सांस से |

तय है ,कोहरे से घिरी गिरीमालाएँ,और
उफनते समुद्र पड़ते हैं,
मेरे तुम तक पहुँचने के रास्ते के बीचोबीच,
बलवती हो भाषा जो कहें तुमसे,
मेरे प्रेम ,मेरी प्रतीक्षा की कथा तुम्हे,
एक ही सांस में,की
कवि ने तय किया है,
मौन रहना,कविता तुम्हारे लिए ही |
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