Thursday, October 10, 2013

कुछ दिन बिलकुल अजीब होते हैं | हाथ में तलवार भी हो ,तब भी क़त्ल नहीं होते |एक भार छाती पर पड़ा रहता है ....मिलीमीटर में सरकाते -सरकाते उसे हटाना पड़ता है | हट जाने पर भी एक नीला जामुनी निशान देर तक बचा रहता है |यह दिन,अनधिकृत विरह के होते हैं ...ऐसा उस लड़के ने कहा था ,जिसकी आँख तक का पानी नीला था ...और मुझे यही लगता रहा ,सुर्ख आँख में नीला पानी कितना अटपटा सा लगता है | तभी उस लड़के ने यह भी कहा :-

इतवार की सुरमयी शाम के,
पंखों पर हाथ फेर लड़के ने,
उसे मोहासिक्त आँखों से देखा, और ,
ट्यूब लाइट का खटका दबा दिया,
रात गहराने तक लड़के ने इतवारी शाम,और
शाम ने लड़के की आँखों में देखा,
दोनों को इंतज़ार की हद पता थी |

मेज़ की नुक्कर पर पर बैठी शाम ने,
अपना पैर कुर्सी पर रखते हुए,
उन तमाम वक्तों को याद किया,
जब -जब उन्हें मिलना था,
पर समय गुज़ारना पड़ा,
कभी कपडे धोते,कभी खाना बनाते हुए,
लड़के ने सिगरेट के सारे मार्के दोहराए,कि
जिनके होने से लड़ा गया बेचैनियों से,
पुरानी किताबों के सारे मुड़े हुए कोने,
सीधे कर पढ़ा गया भूली इबारतों को,
समय की झुकती मूंछों को बल दे दिए,
दोनों कोनों से बांधे गये सूखे हुए गुलाब |

दोनों ने छत्त पर बैठ खेली अन्ताक्षरी,
झूठ बोलने वाले काले कौवे को सिखाया गया,
रीते मटकों से पानी पीने का सलीका,
शाम के घुटने के निशान को सहलाते हुए,
याद किया गया केले के छिलकों से फिसलने का सबब,
लम्बी काली गलियों के आखरी कोनों में,
अनजान सायों को लिपटे अनदेखा किया गया |

पुरानी बेबाकियाँ रसोई के कपड़ों में लपेट,
तय किया गया नया आटा गूंथना,
तेल लगे हाथों में रख,
हाथ से हाथ घिस कर समय लम्बा किया,
चिपकते मोह को खुरचा गया तीखी छुरी से,
पुराने नामों को दीवार पर कोयले से घिसा,
कुछ इस तरह वह दिन जिबह किया |"

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