Thursday, October 10, 2013

करीने से जूते उतार रैक में रखने के बाद

मैं जड़ के करीब से काटे गये चीड़ के तने की तरह

अपने बिस्तर पर गिरता हूँ .

बिस्तर कमोबेश तुम्हारी कल्पित प्रेमिका का स्पर्श है,

वह तुम्हें सहता ,सहलाता ,दुलारता है ,और

समेट लेता है तुम्हें किन्ही कल्पित बाँहों की तरह

तकिया ईमानदारी से एक सर को गोद में रखे रहता है .

लेटे हुए तुम अपनी देह छू देखते हो,

पहनी हुई कमीज़ को तुम्हारी हाथ सहलाता है,

सिद्धहस्त कपड़ा बेचने वाले की तरह,

तुम्हारी तर्ज़नी और अंगूठा एक साज़िश रचते हैं,

तुम्हारी उँगलियों के पोरों पर सोये स्पर्श की आँखें खुल जाती हैं ,

एक पीछे छूटा शहर अपनी गंध से तुम्हे भरता है,

आसक्ति और वैराग्य के धागे से बुने पालने में,

देर तक तुम झूलते हो,

प्रकाश और आँसू तुम्हारी आँखों को धुंधला देते हैं ,और

तुम बंद कर देते हो कमरे में जलती ट्यूब लाईट को ,

उसने कहा था ,"पुरुष नहीं रोते ."

छोटे से संशोधन से मैं कहता हूँ ,

"पुरुष प्रकाश में नहीं रोते .

स्मृति एक नीले बैंगनी रंग की मोटी ज़िद्दी मक्खी है,

जो देर तक तुम्हारे कानों में गुनगुनाती है ,

स्मृति ढेरों एक दूसरे से लिपट कर बने रेशों की रस्सी है,

पूरे पुरुषार्थ से भी तुम नहीं खोल सकते सिर्फ एक रेशा .

स्मृतियों में ही कहीं एक छूटा हुआ उदास रेलवे स्टेशन है,

स्मृतियों ही में कहीं है एक रेशा जिस पर लिखा है,

कभी कहा गया एक उदास शब्द "विदा ".

विदा .......शब्दकोष का सबसे रुआंसा शब्द है,

इस अँधेरे कमरे में अब भी तुम्हारी देह भय से कांपती है,

एक दूसरे को कहते हुए विदा ठंडी सुईयां देह में चुभती हैं,

गहरी काली रात का सन्नाटा कपड़े बदलता है,और

बिरहा गाते किसी लोकगायक की हूक में घुल जाता है .

दिन निकल आया है ,

वह आँसू जो आँख में चमकता है ....अब गिरता नहीं .

---------दीपक अरोड़ा---------
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