Thursday, October 10, 2013

कृशकाय,निढाल वृद्ध ने अपनी आँखें घुमाई,

पैतयाने बैठे हुए पौत्र को देख मुस्कुराए,

अस्फुट उनके अधरों से निकला ,

बनारसीदास ............और होंठ एक असीमित विस्तार में फ़ैल गये .

पैतयाने बैठे पौत्र ने पाया,

बाबा धीरे धीरे उतर रहें हैं विस्मृति की एक गहरी खाई,

बनारसीदास उनसे ग्यारह वर्ष पहले सिधार चुके बालसखा थे .

बुजुर्ग बतिया रहे थे अपने सखा से,

किसी नीले कंचे के बारे में

घबराया पौत्र खोजता निकला किसी को ,

जो हो सके मददगार उस घडी,और लौटा

एक अनपढ़ क्न्पोउडर के साथ .

बाबा कंचे बांटते हुए दूर कहीं चले गये .



लोहे की गद्दी वाली मेज़ पर लेटते हुए,

वह सोच रहा था ,

क्या वे जो एक बार चले जाते हैं,

कभी नहीं लौटते ?

***
स्मृतियों में भी .
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