Friday, April 5, 2013

अनिद्रा के तकिये पर सर रख,
बेहोश सोती है लड़की,
अर्धरात्रि के किसी अनचीन्हे पल में,
अपनी छाती पर टिक गये अपने ही हाथ को,
पा खोल देती है आँख,
बची रात में नींद तिलचिट्टों सी आँख में रेंगती है .

परिचित सह्याद्रियों के साथ के मील पत्थर,
स्मृतियों में कील से गढ़ते हैं,
रात गहराते किसी अदृश्य गंध सा,
सोते चेहरे पर मक्खियों की तरह बैठता है,
कोई अवांछित,परिचित स्पर्श,
नींद छत के पंखे के साथ घूमती है,
गोल ,काली और भूरी उन के गोले सी .

चेतना की परत को छूने लगती है,
छिपते सूर्य की रौशनी,
लड़की सैंडल के तलवे पर रखती है ऊँगली,
पूछती है सही जमीन का पता,
अगला कदम रखने को ,
मेट्रो की तीखी किनारी वाला कार्ड,
चढ़ने और उतरने की सही जगह बता देगा,
मिला तो .

लेम्प पोस्ट की रौशनी में चलते,
अपनी पदचाप से चौंक -नहीं डर जाती है लड़की,
मानती है मन्नत,
मत कहीं घर पहुँचने से पहले गुल हो जाए बत्ती,
अपने भीतर ही उग आये एक गहरा अँधेरा,
सारे अस्तित्व को घेर लेता है एक कुंडली दार अजगर,
टप्पे खाती फुटबाल सा कुछ,
पसलियों से बजता है धाड़ धाड़ .

घर लौटी लड़की सुनिश्चित नहीं होती लौट कर भी,
सोते हुए लेती है दो तकिये,
एक सर के लिए ,एक खुद के लिए .

आकाश परेशान है !

ऊँट के करवट लेने के दोचित्तेपन के बीच की सी मनोस्थिति में वक़्त गुज़रता गया . सोचा किया ,मेरे भीतर तुम्हारे होने की झिलमिल ने,तुम्हारी आँख नहीं छुई -तो किया क्या ? जनवरी की कोहरे भरी सुबह ,खिडकियों के कांच पर जमी होती है . शीशे को ऊँगली से छूते हुए ..डरता हूँ , कुछ लिखा ना जाए .मरियल पीली रौशनी ....बिना किसी स्निग्धता के आसपास के मकानों को छूती है ,वे कहते हैं ,इनदिनों दिन यूँ ही शुरू हुआ करते हैं

इनदिनों मैं आकाश देखता हूँ,
स्मृतिभ्रंश के किसी रोगी की तरह,

मैं हमेशा आकाश देखता आया हूँ,
उत्सुक बच्चों की तरह,
जो देखते हैं आकाश उनदिनों में भी,
जिन दिनों आकाश में पतंगे नहीं होतीं,
लाल पीले हरे रंग से बना कोई सपना,
चिड़िया की बगल में उड़ता रहता है .

मैं आकाश देखता हूँ ,और
दूर कहीं एक सोये ज्वालामुखी की भाप सी धुँध को,
मौसम और वक़्त से मार खाए,
मकानों पर उतरते ताकता हूँ,
सफेद ,नीली और स्याह चिन्दियों से बुने आकाश में,
बेहद पास के या ,
बहुत दूर चले गये चेहरे देखता हूँ ,
अस्वस्थ कंपन से मेरी उंगलियाँ,
नितान्त अस्थिरता से थामे रहती हैं बुर्श जैसा कुछ,
जमीन ओलों के मैले पानी से होती है गीली .

मैं आकाश देखता हूँ हर उस वक़्त,
जब चाहता हूँ मैं होना उदास,
सच ! कुछ ज्यादा नहीं करना होता उदास होने के लिए,
घास पर उल्टा लेट,
मैं आँखों को करता हूँ अतीतमय,
मिलाता हूँ आज के आकाश को ,
छुटपन की आँख में भरे किसी एक दिन के आकाश से .

(आकाश परेशान है ... मैं भी , दोनों छूते हैं एक दूसरे को आश्वस्त करते ..........कि कुछ नहीं बदला कहीं )
[ दो झूठों के बीच वार्तालाप .......भाग एक ]
पाता हूँ ,बाहर ही नहीं हैं नदी,
भीतर भी बहता है कुछ,
धीरे से मन नदी हो जाता है,
गाढ़े शहद सी मंथर गति से,
मैं तली से तंग मुहं को चलता हूँ,

रौशनी की एक धज्जी,
ठन्डे अन्धकार से भरे मेरे कमरे की,
चौखट पर फहराती है,
मेरे भीतर सारे तंतु,
अपने सन्नाटे को सुनते हैं,
तहदार अंधेरों में तुम्हारा होना,
अगम नदी में उतरने सी आलौकिकता सा,
रगों में बहते खून को एकाएक,
बुहारने लगता है पीछे की ओर,
समय की श्वेत पहरन पर,
गुलाबी स्मृति के गहरे लाल छींटें हैं .

जानता हूँ,
जितना होता हूँ स्मृति में,
उससे माशा भर भी कम नहीं होता द्वंद्व में,
सोचता हूँ ,मेरे एक स्वप्न में होने से,
कितनी आँखें भर जायेंगी किरकिराहट से,
स्वरहीन एकांत में,
मेरी पीठ में गढ़ी है टोपी वाली कील सी,
लौटने की अनुभूति,
मेरे सीने पर चढ़ी है एक जरकन,
उसे चाहिए दुनिया भर का सीसा अपने भीतर .
(यह सोचते सोचते आज का दिन निकला .......कल फिर पहाड़ चढ़ना है )

..........................
तुम्हे देखना
भिखारी के कटोरे का
लबालब भरना है
ना देख पाना रेगिस्तान में घूमने निकले
नितांत अकेले की मश्क का रीत जाना है !
.........................
तुम्हे तो पता है न
बोल ही तो नहीं पाता मैं
पर कह दूँगा इस बार
मुझे जाना ही नहीं है
यह पृथ्वी छोड़ कर जबतक
तम यहाँ हो
और तुम तो रहोगी ही
क्योँकि तुम्हारे होने से ही है
पृथ्वी भी पृथ्वी !
............................................
रोज़ मिलने की ख्वाहिश
और कभी न मिलने के अहद में
उलझी जिंदगी
कसाई की दूकान पर ,हुक से टंगे
उलटे लटके बकरे सी हो गयी है
सीने से खून टपकता है
कपडा मार कसाई हर नए ग्राहक से
पूछ लेता है ,क्या दूँ साहिब ?
एल रोता दिल ,एक फूंका जिगर या फिर
एक बेचैन जेहन ?

सच प्रेम !

घुटनों तक झलकती पिंडलियों से परावर्तित होते प्रकाश के चेहरे पर एक अभिन्न आलोक था .प्रकाश ने कबूलनामा दिया,"शुक्र कि मैं आईना नहीं था ......वर्ना किरच किरच हो गया होता ." जोड़ा आईना होता तो रौशनी से चमक गया होता यह ग्रह .उसने शीशे को बोलकर शुक्रिया कहा ....आईना होने के लिए ...........आईना ना होने के लिए भी .

तुम्हारा प्रेम ( यदि सच ही वह क्रांति नहीं था )

मेरे खून के दबाव को नापते अब भी,

क्यों उनके चेहरे से झलकता है,

किसी घातक बम की तार काटने सा भाव,

शायद यह उस विस्फोटक प्रेम की मार्कशीट है,

जो तुम तक पहुंची नहीं,जिसे तुमने पढ़ा नहीं ,
***
अराजक,स्त्रीविरोधी इसीलिए प्रेमविरोधी,

इस समय की सीढ़ियों पर केले के छिलके तरतीबवार रखें हैं,

आह ! अज्ञान तू होता तो,

वे कह पाते मेरा प्रेम लिपटा है फीते सा ,

तुम्हारी देह से ही
***
कसाई कहता है सत्तर किल्लो के बकरे में,

डेढ़ किल्लो का होता है दिल ,

मैं नब्बे किल्लो का हूँ,

पर यह प्रतिशत और औसत का सवाल नहीं .
***
मेरी देह की नसों को गर तरतीब से फैला सकें वह,

उससे पूरी होती है पौनी पृथ्वी,और

शतांश मेरे प्रेम का भी .
***
चूंकि यह गणित नहीं और जीव विज्ञान भी,

पिछली बातें भूल जाओ,

याद रखो केवल

प्रेम क्रांति तुम मैं और ...........सच !
(अनंत बार बोला प्रेम ,असंख्य बार सुना प्रेम ,दो बार छुआ प्रेम ,तीन बार खोया प्रेम .....ईश्वर मैंने तुम्हे कभी नहीं पाया ,कभी नहीं खोया ..............सच प्रेम !)

जागता ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

मैं बहुत दिन से सोया नहीं ,कि
आँख का भार से झपक जाना होता सोना ,तो
मैं जागा ही नहीं कभी .

दरअसल जागने और सोने के अंतराल को,
कलाई घडी से नापते निकल गयी,
सो सकने की वह उम्र,
जब समय से उगे सूरज की पहली आँख छूती किरण,
गुस्ताख प्राकृति की छेड़ लगती थी,
और सुरमे सी आँख में फिरती रौशनी,
तालाब की भैंस को बाहर निकालते,
उचारी गयी जोर की टिचकारी,

अब दिन भर की उदासियों को,
अपनी उँगलियों से छू,
जब जा पाता हूँ सोने ,
मेरी आँख में तैरती रहती हैं ,
बिना पलक की मछलियां,
जिन्हें मूंद्नी नहीं पड़ती पलकें सोने को ,कि
पलकों का मूंदना होता सोना,तो
हर सुबह अंगडाई तोड़ उठती दुनिया .
सच जाग ही जाती .

यूँ भी कहाँ सोता है सच में कोई,
जब बैठा होता है ,
एक दूसरे को थपक सुलाने का ख्याल,
पलकों के भीतर .

खामोशी ...............)

एक दिन तुम बाहर बोलना कर देते हो,
दिनों तक कोई नहीं सुनता तुम्हारा स्वर,
नीरव एक विस्तार में फैले ओढ़ना चाहते हो मौन की चादर,
बस पवन चक्कियों के पंखों सा कुछ,
निशब्द अंदर अंदर घूमता है,
यह मौन होना नहीं होता .

उस दिन कुछ भी विशेष नहीं होता,
बस चलती हुई हवा के हाथ कोई सांकल नहीं खटखटाते,
होती हुई बारिश से गीली नहीं होती पृथ्वी,
नीम का एक और पीला पत्ता,
ठीक बाकी पत्तों के साथ धरती तक पहुँचता है,
असीम नदी में बहता पानी,
कल कल की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं छोड़ता ,
फीकी मुलायम धूप लेटी रहती है घास पर .

उस दिन भी खिलखिलाती हंसी हंसती हैं बडी हो रही लड़कियां,
बल्ला उठाये खेलने जाते लड़कों का झुण्ड बात करता रहता है किसी ताज़ा फिल्म की,
रेल बिना घडी देखे यात्रियों को उतरती रहती हैं स्टेशनों पर,
दूर कहीं बनीं धर्मशालाओं के द्वार खटखटाते हैं पथिक,
बस नहीं कुछ होता तो गूंजती ठक ठक नहीं होती .

ऐसे किसी भी उजाड़ दिन,
मैं होता हूँ बिलकुल अपने साथ आसपास की ख़ामोशी को,
हाथ से सहलाता हुआ .
(ख़ामोशी ...एक भूरे पिल्ले को गोद में बिठा उसके कंठ से अपनी कूं कूं सुनना है

छठवां तुम ..............

मैं तुम्हें धन्यवाद कहना चाहता हूँ !

असीमित रुदन में घुली सारी कल्पना भी,
मेरा हाथ थाम,मुझे नहीं ला सकती थी,
इस ऊबी हुई,उदास अकेली विश्रांति की बगल तक .

झड़े पत्तों वाले नंगे वृक्षों के इस मौसम में,
जब कुछ वृक्षों ने तय किया है,
हरे लंगोट सा कुछ पहनना,
मैं एक अनिद्रा से भरी रात के बाद ,
अपनी आँखों के नीचे फ़ैल रहे स्याही के काले खेत देखता हूँ .

हथेली भर अँधेरे ,
उँगलियों में नापे जा सकते एकांत में ,
तुम्हे छू उग सकती सौम्यता की,
कल्पना करते मुझे सच लगता है,
मुझे अब कहना चाहिए तुम्हें धन्यवाद,कि
कल्पना कहती है तुम नहीं होतीं तो ,
जाने कैसी होती यह पृथ्वी ?

सिर्फ इसलिए पृथ्वी,आकाश वायु,जल और अग्नि के साथ,
धन्यवाद तुम्हारा भी .
तीखी,एक घूमती बरमी,
मेरे एकांत में सुराख करती है .

मैं खुश हूँ कि सुराख खोल देते हैं,
हवा के आने जाने को छेद,
एक दिन,इन्ही सुराखों से रिस कर आएगी,
नमी,प्रकाश और उष्मा भी .

दरअसल यह जानना कि,
बिना सुराख़ के आप नहीं कस सकते पेच,
किसी दरवाज़े के,
खोल और बंद कर सकने की सहूलियत सोचते हुए,
सीने की मासपेशियाँ आराम से घूमने देतीं हैं बरमी .

कसे हुए कब्जों से,
भीतर आ,तुम एक दिन कर सकोगी द्वार बंद,
सुरक्षित,
इन्हीं छेदों से बाहर देखते,
सहज हो जायेगी कोई स्वर एक साथ सुनने की प्रतीक्षा,
मेरे साथ तुम्हारी भी .

इन्हीं सुराखों से मैं लूँगा जहर भीतर,
बची रहेगी मेरी आत्मा तुम्हारे प्रेम के साथ,
किसी दीमक के बिना .

....तो पढ़ा मैंने अपना चेहरा भी

धीरे से बदल जाती है दुनिया,
एक शोर से भरी सड़क से,
बिना पानी की झील सी स्तब्धता में,
डूबती तैरती,हरे पत्तों के बीच के अन्धकार सी रौशनी,
मेरे चेहरे पर तुम्हारा चेहरा छाप देती है .

अपने होने के भीतर भर जाता है,
तुम्हारे होने का पानी,
प्रेम में होने की निरीहता,
चेहरे से ओले की तरह टपकती है,
मैं जानता हूँ उन पलों में होता हूँ मैं,
कील निकले मुहांसे सा ,दीगर
कोई मिला कर नहीं देखता मेरे चेहरे को,
मेरे चेहरे से उस एक पल में .

मेरी मुस्कराहट में खाई में उतरते होने सा अवसाद,
मेरी नाक की नोक पर टिकी शिकारी कुत्ते सी सूंघ,
तुम्हे मेरे आसपास टोहती है,
अपने भीतर मैं देख रहा होता हूँ,
घुप्प अँधेरे में फड़फड़ा उड़ते कबूतरों को .
(बहुत दिन निर्वात में तुमसे बतियाते,आज आईना देखा .....तो पढ़ा मैंने अपना चेहरा भी )

कविता उदासी को बुनने का सुंदरतम नमूना है

शोक सपनों की दीवार की झीतों से रिस कर आता प्रकाश है .

जबकि सपनों में जाने से कहीं पहले,
देखे थे मैंने,
घड़े भी ,पत्थर भी .

पहली कविता लिखते हुए मुझे याद थी,
वह,जिसे नहीं पता था नुक्कर पर खड़ा कोई लड़का,
अपनी कविता लिखेगा उसके लिए,
वह रेलवे लाइन जिसपर आज आपको रुकना नहीं पड़ता,
समय की न्यूनतम इकाई में भी,
तब दिन भर कहीं से भी उग सकने वाली बेचारी भूख का "गया "थी,
मुक्ति एक सुंदर शब्द है .

अजीब है,
पर बहुत बेहतर तरीके से जानता हूँ,
कविता लिखना अपने हाथ से अपना गला घोंटते हुए,
अविरल आकाश से झरती गूं गूं की विवश आवाज़ है,कि
सुनना विवशता भी होता है .

थकी यात्रा करते हुए,
तुम्हारी उम्र में जुड़ जाते हैं,
तुम्हारी प्रतीक्षा के सारे वर्ष भी,कि
उन्होंने यूँ ही नहीं जोड़ा होगा,
प्रतीक्षा के साथ अनंत .

लिखते हुए मुझे अक्सर लगता है,
एक माँ का बच्चे के लिए जुराबें बुनने की तरह,कि
कविता उदासी को बुनने का,
सुन्दरतम नमूना है .
(उदास बुनती की स्वेटर सुंदर होती है )

गढ़ना मैं सीख लूँगा

तुम कभी गये हो ईंटों के भट्टे पर बरसात के दिनों में ?

सांचों से निकली घड़ी हुई सुंदर ईंटों के चेहरे,
बरसात,चेचक से भर देती है ,कि
बरसात का अपना काव्य है,
जिसे ईंट की देह पर वह लिखती नहीं,
केवल गढ़ती है .

साँची के स्तूप और सारनाथ के बुतों के बीच से गुज़रते,
पाया मैंने .....छूना लगभग लिखने को कहते हैं,
गढ़ना मैं सीख लूँगा बारिश होना सीखने के बाद,
किसी भी दिन .