Friday, April 5, 2013


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तुम्हे देखना
भिखारी के कटोरे का
लबालब भरना है
ना देख पाना रेगिस्तान में घूमने निकले
नितांत अकेले की मश्क का रीत जाना है !
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तुम्हे तो पता है न
बोल ही तो नहीं पाता मैं
पर कह दूँगा इस बार
मुझे जाना ही नहीं है
यह पृथ्वी छोड़ कर जबतक
तम यहाँ हो
और तुम तो रहोगी ही
क्योँकि तुम्हारे होने से ही है
पृथ्वी भी पृथ्वी !
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रोज़ मिलने की ख्वाहिश
और कभी न मिलने के अहद में
उलझी जिंदगी
कसाई की दूकान पर ,हुक से टंगे
उलटे लटके बकरे सी हो गयी है
सीने से खून टपकता है
कपडा मार कसाई हर नए ग्राहक से
पूछ लेता है ,क्या दूँ साहिब ?
एल रोता दिल ,एक फूंका जिगर या फिर
एक बेचैन जेहन ?

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