Friday, April 5, 2013

खामोशी ...............)

एक दिन तुम बाहर बोलना कर देते हो,
दिनों तक कोई नहीं सुनता तुम्हारा स्वर,
नीरव एक विस्तार में फैले ओढ़ना चाहते हो मौन की चादर,
बस पवन चक्कियों के पंखों सा कुछ,
निशब्द अंदर अंदर घूमता है,
यह मौन होना नहीं होता .

उस दिन कुछ भी विशेष नहीं होता,
बस चलती हुई हवा के हाथ कोई सांकल नहीं खटखटाते,
होती हुई बारिश से गीली नहीं होती पृथ्वी,
नीम का एक और पीला पत्ता,
ठीक बाकी पत्तों के साथ धरती तक पहुँचता है,
असीम नदी में बहता पानी,
कल कल की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं छोड़ता ,
फीकी मुलायम धूप लेटी रहती है घास पर .

उस दिन भी खिलखिलाती हंसी हंसती हैं बडी हो रही लड़कियां,
बल्ला उठाये खेलने जाते लड़कों का झुण्ड बात करता रहता है किसी ताज़ा फिल्म की,
रेल बिना घडी देखे यात्रियों को उतरती रहती हैं स्टेशनों पर,
दूर कहीं बनीं धर्मशालाओं के द्वार खटखटाते हैं पथिक,
बस नहीं कुछ होता तो गूंजती ठक ठक नहीं होती .

ऐसे किसी भी उजाड़ दिन,
मैं होता हूँ बिलकुल अपने साथ आसपास की ख़ामोशी को,
हाथ से सहलाता हुआ .
(ख़ामोशी ...एक भूरे पिल्ले को गोद में बिठा उसके कंठ से अपनी कूं कूं सुनना है

1 comment:

  1. ऐसे किसी भी उजाड़ दिन,
    मैं होता हूँ बिलकुल अपने साथ आसपास की ख़ामोशी को,हाथ से सहलाता हुआ .

    ख़ामोशी की भी अपनी एक जुबान होती हैं .....और ख़ामोशी को सुन पाना हरेक का हुनर नही

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