Thursday, October 10, 2013

मैं भरी आँख से आकाश देखता हूँ .
आकाश की आँख भर आती है,
बरसती बूंदों से हरी होती हैं पृथ्वी की कोख,और
उग आते हैं पीले कनेर .

मुझे किसी ने नहीं बताया विरह का रंग,
जरूर होता होगा सुर्ख,
पीले होते चेहरों से उडती कांति सा ,
गाल में पड़ते खोखर को तुम टोह सकते हो ऊँगली से,
अगर उतारा जाए एक एक्स रे तो तुम्हारे भिंचे जबड़ों से,
टपकता होगा जब्त का रंग .

उल जलूल बतकही के इस दौर में,
मेरा मन होता हैं उन पुरुषों के बारे में बात करने का,
जिनके अंदर घुटनों के बल रेंगता रहता है एक बच्चा,या कि
जो खेलते रहते हैं टूटे मटकों से गढ़ी गयी,
लाल मिटटी की पकी हुई टुकड़ियों से ,और दूर से फैंक गेंद,
तोड़ देते हैं एक बुलुंद बुर्ज,और
भागते हैं दूर तक बेवजह .

इनदिनों जब शिखर पर आया सूरज,
पिघाल देता है दिमाग का कतरा कतरा,
भूखे लक्कड़बघ्घों की तरह,
लकड़ी छोड़ सब खा जाता हूँ मैं ,और
देर तक जबड़ों पर मलता हूँ आयोड़ेक्स .

यह सघन विरह से भरे भारी घनत्व वाले दिन हैं,
सीने पर पड़े पत्थर को सरकते सरकते,
मैं पृथ्वी को स्थिर देखता हूँ,बेशक
सूर्य चहल कदमी करता है उसके इर्दगिर्द,
अन्धकार को बाँहों में भींचे !

3 comments:

  1. Deepak ji aap bahut acchha likhte hain ...kamal hai ki koi tippni kyon nahi mili aapko in posts par...?

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  2. सुंदर अभिव्यक्ति

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  3. बहुत बढ़िया लगा। ।काफी कसी हुई प्रस्तुति रही.बधाई कवि...

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