Thursday, October 10, 2013

मैं भरी आँख से आकाश देखता हूँ .
आकाश की आँख भर आती है,
बरसती बूंदों से हरी होती हैं पृथ्वी की कोख,और
उग आते हैं पीले कनेर .

मुझे किसी ने नहीं बताया विरह का रंग,
जरूर होता होगा सुर्ख,
पीले होते चेहरों से उडती कांति सा ,
गाल में पड़ते खोखर को तुम टोह सकते हो ऊँगली से,
अगर उतारा जाए एक एक्स रे तो तुम्हारे भिंचे जबड़ों से,
टपकता होगा जब्त का रंग .

उल जलूल बतकही के इस दौर में,
मेरा मन होता हैं उन पुरुषों के बारे में बात करने का,
जिनके अंदर घुटनों के बल रेंगता रहता है एक बच्चा,या कि
जो खेलते रहते हैं टूटे मटकों से गढ़ी गयी,
लाल मिटटी की पकी हुई टुकड़ियों से ,और दूर से फैंक गेंद,
तोड़ देते हैं एक बुलुंद बुर्ज,और
भागते हैं दूर तक बेवजह .

इनदिनों जब शिखर पर आया सूरज,
पिघाल देता है दिमाग का कतरा कतरा,
भूखे लक्कड़बघ्घों की तरह,
लकड़ी छोड़ सब खा जाता हूँ मैं ,और
देर तक जबड़ों पर मलता हूँ आयोड़ेक्स .

यह सघन विरह से भरे भारी घनत्व वाले दिन हैं,
सीने पर पड़े पत्थर को सरकते सरकते,
मैं पृथ्वी को स्थिर देखता हूँ,बेशक
सूर्य चहल कदमी करता है उसके इर्दगिर्द,
अन्धकार को बाँहों में भींचे !
मैं भरी आँख से आकाश देखता हूँ .
आकाश की आँख भर आती है,
बरसती बूंदों से हरी होती हैं पृथ्वी की कोख,और
उग आते हैं पीले कनेर .

मुझे किसी ने नहीं बताया विरह का रंग,
जरूर होता होगा सुर्ख,
पीले होते चेहरों से उडती कांति सा ,
गाल में पड़ते खोखर को तुम टोह सकते हो ऊँगली से,
अगर उतारा जाए एक एक्स रे तो तुम्हारे भिंचे जबड़ों से,
टपकता होगा जब्त का रंग .

उल जलूल बतकही के इस दौर में,
मेरा मन होता हैं उन पुरुषों के बारे में बात करने का,
जिनके अंदर घुटनों के बल रेंगता रहता है एक बच्चा,या कि
जो खेलते रहते हैं टूटे मटकों से गढ़ी गयी,
लाल मिटटी की पकी हुई टुकड़ियों से ,और दूर से फैंक गेंद,
तोड़ देते हैं एक बुलुंद बुर्ज,और
भागते हैं दूर तक बेवजह .

इनदिनों जब शिखर पर आया सूरज,
पिघाल देता है दिमाग का कतरा कतरा,
भूखे लक्कड़बघ्घों की तरह,
लकड़ी छोड़ सब खा जाता हूँ मैं ,और
देर तक जबड़ों पर मलता हूँ आयोड़ेक्स .

यह सघन विरह से भरे भारी घनत्व वाले दिन हैं,
सीने पर पड़े पत्थर को सरकते सरकते,
मैं पृथ्वी को स्थिर देखता हूँ,बेशक
सूर्य चहल कदमी करता है उसके इर्दगिर्द,
अन्धकार को बाँहों में भींचे !
इनदिनों अवसाद घने कोहरे सा उतरा है,
अकेला ,बिस्तर पर पड़ा मैं रुई के इन फाहों को सहलाता हूँ

यह कुछ अलग किस्म के दिन हैं,
इनदिनों खुद के बारे में सोचते हुए मेरे चेतन में उभरते है,
छोटे छोटे जांघिये पहने लडके,
सूखे आंसूओं ने जिनके गालों पर लिखा है,
http://www.blogger.com/blogger.g?blogID=4179750240606683852#editor/target=post;postID=4056623878180360452;onPublishedMenu=allposts;onClosedMenu=allposts;postNum=0;src=postnameएक्स ,वाई ,जेड
उन्हें नहीं आती यह इबारत मिटानी अभी .

मुझे इनदिनों याद आती हैं हल्के से मुटियाई वे औरतें ,
जिनके सीनों में ईश्वर ने दिल के साथ रखा हैं एक स्पंज का टुकड़ा,
इन औरतों के प्रेमियों की आँख में नहीं उमड़ते आंसू,कि
हर कतरे को जज़्ब कर यह नहीं दिखने देतीं एक भी गरम बूँद ,

यह अटपटे दिन हैं,
इन दिनों सवाल जवाबों की तरह आते हैं,और
जवाब सवालों की तरह उगते हैं ,कि
मैं इन दिनों बाढ़ग्रस्त देशों के बारे में सोचते हुए
सोचता हूँ प्रेम में मुटिया गयी औरतों के स्पंज के बारे में, और
लेता हूँ रोक खुद को इनका दिल उन इलाकों में गिराने से .

पानी बेहद जरूरी है बेशक वह रहे आँख में झील सा ठहरा हुआ !
शहर के सूनेपन ,और

तुम्हारी चुप्पी

दोनों के साथ,

एक साथ निबाह और

संभव नहीं था .

इसीलिए रुई के सट्टे में

दिवालिया हुए सेठों की तरह,

मैंने रातोंरात घर छोड़ दिया

चंद तस्वीरें बुतां, कुछ हसीनो के खतूत,की

तर्ज़ पर निकलते हुए

मैंने अपने साथ रखी

एक पीले कागजों वाली कापी

जिसमे अनगिनत ख़त थे,

जो मैंने तुम्हे लिखे,और

कभी भेजे नहीं,

स्कूल की एक पोस्टकार्ड,

साइज़ फोटो जिसमें,

तुम दूसरी लाइन में ,

बाएं से चौथे नम्बर पर खड़ी हो ,और

मैं तीसरी लाइन में दायें से पांचवें ,और

उस शहर का आसमान ,

जिसमें सितारे बहुत थे, पर

चाँद एक ही .

2

समय बहुत

निकल गया है ,पर

आज भी जहाँ कहीं मैं जाता हूँ ,

हर पता

उसी पीली कापी में

लिखता हूँ ,

हर रात तुम्हारे शहर के

उसी आसमान की

चादर ओढ़ कर सोता हूँ,और

उसी तस्वीर को

धुंधलाती आँखों से

देखता हूँ ,

जिसमें सितारे बहुत हैं,पर

चाँद एक ही .
आजकल सोचता हूँ,किसान के लिए वह दिन सबसे त्रासद होते होंगे ,जब उसने पृथ्वी का गर्भ बीजों से भर रखा होता है,आसमान पर स्लेटी बादल छाते होंगे और बिना बरसे आगे निकल जाते होंगे .उस स्लेटी स्याही से किसान के चेहरे पर लिखी जाती मायूसी क्या किसी लिपि में पढ़ी जा सकती होगी ......वे दिन कोठार से अनाज निकाल खाने के दिन होते होंगे .

पता नहीं क्यों पिछले कुछ दिनों से लगने लगा है ....कि कविता आकाश से उतरती है ..और कवि उस वक़्त एक स्टैनो से अधिक कुछ नहीं होता .इन दिनों आकाश से कोई कविता उतर नहीं रही ..........गोया यह कोठार से अनाज निकल कर खाने के दिन है .


लड़के की आँख से गिरा पानी,रुमाल में ज़ज्ब होता रहा | रुमाल शाम सा
स्लेटी हो गया |हाथ से छू लो,तो उँगलियाँ स्याह हो जाएँ |आवाजें कहें ....छू
सकते हो,दिल का दामन , .. हाथ को दूर रखो चेहरे से ,कि पता नहीं कैसे
विदा किये हैं, मुहांसे कल की डाक में डाल कर | चाँद खूबसूरत है,जो दूर से
देखो ...इतना कह कर लड़के ने फिर से,किस्सा विक्रम बेताल सुनाया :-

खुली पलकों में सुरमचू से फिरी रात ने,

आँख के तलवे काले कर दिए,

कोने में पड़े बाजे से

काली प्लेटों वाले कुत्ते ने,

सारी रात सुनाये पैदाइश से भी पहले गाये गये,

बेबस विरह के गीत,

आँख के कोनों में आई लाली को,

पलकों से छू लड़के ने

तेज़ चलती हवा को गाली दी,

पंखे का खटका दबाने के बाद,

कोशिश की पंख गिनने की .

पूरी रात बैठ ख्वाब की कुर्सी पर

पोंछ दिया भवों से टपकती उदासी को,

उँगलियों पर गिना कितने दिन दूर थी अमावस,

चांदनी रात के गाल पर हाथ फेर

रौशन होते देखा उँगलियों की पोरों को,

नमकदानी को उल्टा कर उलट दिया सारा नमक,

एक चुटकी जबान पर रख बदल दिया

इंतज़ार की रात का स्वाद,

लिपस्टिक की तरह होंठों पर चस्पां की,

दिन में चमकने वाली
,
दिलफरेब मुस्कान,

कमीज़ पर इस्त्री की और निकाल दिए,

रात के बल .

नीम के पत्तों की किनारी पर उँगलियाँ फेर,

काट दिया कोनों पे चमकती चांदनी को,

साबुन और पत्थर को घिस कर

पैरों से उतार दिए सफ़र के निशान

काफी सी भूरी उदासी को हल्का किया मिला के दूध

जेब में कलम टांगते हुए,

तय किया शाम को रोकड़ मिलाना,और

कचरे से बीन लिए हिसाब के कागज़ .

दिन भर धूप से मिलते हुए,

रेत की किरचों को छीलने दिया चेहरा आलू की तरह

शाम को चेहरे से उतार दिए उबले अंडे के छिलके

एक गिलास पानी पीने के बाद

दिमाग से झाड़ दिए मकड़ी के जाले,

अपनी गुद्दी पर मारा हाथ और कहा ,

तैयार हूँ में अगली रात के लि
मुझे क्षमा करना ईश्वर !

यह जो एक आहत अजान जैसा एक स्वर,
तुम्हारी आँतों में उठ रहा है ,यह
तुम्हारे आहूत करने को गाया जाता कोई मन्त्र नहीं है,
मैं सच नहीं बुला रहा तुम्हें,
चौसर की एक बिगड़ी बाजी की गोटी सही जगह रखने को,

उन सब पलों में जब मैं समझता रहा,
ईश्वर एक अनंत में फैले उद्घोष का,
उन्मुक्तता से लिया जा सकने वाला नाम है ,
मुझे नहीं पता था तुम्हारे चेहरे पर उगी उन्मत मूंछों के बारे में,
जिन्हें तुम इतना कस उमेठते हो ,कि
कलाई से मोड़ा जाना नहीं रहता मुहावरे से अधिक कुछ भी .

मैं अनास्था के घोर समय में लेता रहा तुम्हारा नाम,
नहीं कि बहुत कठिन था वह समय,
गलत पढाते रहे वह सब जो कहते थे,
तुम एक बार ईश्वर कहते हो ,तो
सौ बार कहते हो प्रेम !!!
सच ! उस दिन कुछ भी विशेष नहीं होता .सामान्य गति से टेबल टैनिस की टप टप उछलती गेंद सा तुम्हारा दिल एक धडकन भूल जाता है .गेंद एक छुई जा सकने वाली चीज़ है .कितना अच्छा होता जो छू सकते हम धड़कन भी और कह पाते ...देखो खेल में यूँ रोद मारना ठीक नहीं .

सोचता हूँ ,क्या तब भी मैं अपना बल्ला ,अपनी गेंद लिए लौट आता .....गालों पर सूखे आंसुओं के निशान लिए ?
आइये श्रीमान ! कुछ बात करते हैं .

वैसे तो बेहतर यही है कि ,
चूँकि आपके पास विगत स्मृतियों की गठरी है,
आप उसे सर के नीचे रख लें,और
अपना तकिया मुझे दे दें .

देखिये ! बतियाते हुए हम बात कर सकते हैं किसी भी विषय पर,
मसलन सपेरे की बीन के छेदों से लेकर दीन -ऐ -इलाही तक,
पर, मुझे लगता नहीं आपको इन बेकार विषयों में रूचि होगी .

सच कहूँ जनाब ! आपके माथे की लकीरों को देखते हुए,
मुझे लगता है ,आप जरासंध की मृत्यु मरेंगे,
वे आपके बेशउर दिल को दायीं और फेंकेंगे,और
बेतरतीबी से बढ़ रहे जिगर को आपके बाए हाथ रखेंगे,और
क्योंकि आपके पास सिर्फ एक अमाशय है,और
उनके पास हरे चारे की बहुतायत,तो
तय रहा भूखे तो आप नहीं ही मरेंगे .
वह जिनके पास अमाशय के साथ गर्भाशय भी है,
उनके बारे में भी गंभीरता के साथ सोचा जा रहा है .

जनाब !मैंने माना,कि
आपसे बतियाते हुए मैंने आपका तकिया ले लिया,और
अब इसे अपनी बायीं बाजू रख मैं आपको बेकार किस्सा सुना रहा हूँ,
पर हुजुर ! मेरे नाना कहते थे ,
किस्से जिंदगी से निकलते हैं और जिन्दगी किस्सा होती है,
आपका कहना भी ठीक है ,
भला मेरे बुजुर्गों के दिमागी खलल से आपका क्या वास्ता?

आप ठीक कहते हैं .यह अपना तकिया लीजिये ...हाँ थोडा और ऊपर .

आपकी गठरी और तकिया दोनों आपके सर के नीचे हैं ,
आराम से सोयियेगा !
यह दिन थोड़े अजीब हैं .
इनदिनों सांझ होते ही मैं सूरज को पीठ का नाप देता हूँ,
सूरज बच्चों की अनगढ़ उँगलियों से पृथ्वी पर मेरा होना लिखता है .

यह एक बेबस विरल विरह के दिन हैं,
मेरे हथेलियाँ एक उतप्त हाथ की छुअन से भरी हैं,
एक नितांत ठंडी तरल उष्मा से भीगे हाथ से,
मैंने जलते कोयले उठाये हैं .
उँगलियों के पोरों पर उगे फफोलों को इतने तल्लीन हो मत देखो,
देर नहीं कि तुम एक तरल नदी में बह जाओ .

यह दिन अजीब हैं और रातें विचित्र,
गहरी काली रात में अनिद्रा मेरी आँखों में गर्म शहद के टपके डालती है,
कडवी रातों को मीठे सपने देते वह मेरे लिए प्रार्थना करती है,
दिन काला करके आँखें पलकों तले बने कोटरों में मृत रहना चाहती हैं,
अगली सुबह उगने तक .

यह दिन विचित्र हैं,कि
इनदिनों मकड़ियां मेरी हथेलियों के बीच बुन रहीं हैं,लिसलिसे जाल,
इनदिनों मैं डरता हूँ पानी छूते हुए,कि
सादगी से बहते पानी की घूँट कहीं नमकीन ना हो जाए .

यह विचित्र दिन हैं की मैं बैठा रहता हूँ मुट्ठियाँ भींचे,
लड़ने को तैयार बिलकुल एक मुक्केबाज़ की तरह ,
मेरे हाथ पर बच्चों की कलम से खींची गयी लकीरों के गिर्द,
जमता रहता है लहू,
हथेलियों में जमे खून में लिखा है ,
मैं जिंदा हूँ अभी .

(सांझ रात के लिए उबाल रही है शहद, मैं धो रहा हूँ आँखें )
मैं भरी आँख से आकाश देखता हूँ .
आकाश की आँख भर आती है,
बरसती बूंदों से हरी होती हैं पृथ्वी की कोख,और
उग आते हैं पीले कनेर .

मुझे किसी ने नहीं बताया विरह का रंग,
जरूर होता होगा सुर्ख,
पीले होते चेहरों से उडती कांति सा ,
गाल में पड़ते खोखर को तुम टोह सकते हो ऊँगली से,
अगर उतारा जाए एक एक्स रे तो तुम्हारे भिंचे जबड़ों से,
टपकता होगा जब्त का रंग .

उल जलूल बतकही के इस दौर में,
मेरा मन होता हैं उन पुरुषों के बारे में बात करने का,
जिनके अंदर घुटनों के बल रेंगता रहता है एक बच्चा,या कि
जो खेलते रहते हैं टूटे मटकों से गढ़ी गयी,
लाल मिटटी की पकी हुई टुकड़ियों से ,और दूर से फैंक गेंद,
तोड़ देते हैं एक बुलुंद बुर्ज,और
भागते हैं दूर तक बेवजह .

इनदिनों जब शिखर पर आया सूरज,
पिघाल देता है दिमाग का कतरा कतरा,
भूखे लक्कड़बघ्घों की तरह,
लकड़ी छोड़ सब खा जाता हूँ मैं ,और
देर तक जबड़ों पर मलता हूँ आयोड़ेक्स .

यह सघन विरह से भरे भारी घनत्व वाले दिन हैं,
सीने पर पड़े पत्थर को सरकते सरकते,
मैं पृथ्वी को स्थिर देखता हूँ,बेशक
सूर्य चहल कदमी करता है उसके इर्दगिर्द,
अन्धकार को बाँहों में भींचे !
नींद के ताबूत में लेटे तुम ,सपनों के एक अनदेखे खंडहर की सीढियां उतरते हो |एक तरतीब से रखे होते हैं वहां ,तुम्हे पहली बार पहनाया गया पुराना कुरता,
तुम्हारी नाभि पर काले धागे में पिरोया हुआ चाँदी का घुंघरू,तुम्हारा पहला झुनझुना, लकड़ी का लाल पीले रंग में रंगा पहिये वाला फ्रेम ,एक जोड़ी छोटे से सेंडल,अक्षरज्ञान और गिनती सिखाने के लिए मोटे कागज़ पर छपी तस्वीरों वाली किताब ,तुम्हारा पहली बार लिखा छह ,जो हिंदी में लिखे सात से पूरी तरह मिलता है |नींद के ताबूत को घुन लग जाता है ,अंगड़ाई के लिए फैले तुम्हारे हाथ ताबूत की दीवारों में सुराख़ कर बाहर निकल आते हैं |आँख से पलकें धीरे से उठती हैं,और तुम सफ़ेद रंग से पुती एक छत देखते हो .....आह ! इस सफेदी को यूँ देखने के लिए तुम कितनी रंगीन चीज़ें पीछे छोड़ आये हो ……..
मैंने बहुत बार चाहा,
अपनी देह को चीर दूं आरे से निकलते शहतीर की तरह,और
देह के दोनों हिस्सों से चुन लूं एक,
जो सच में मेरा है .या कि
जी भर जीऊँ विदेह हो तुम्हारे साथ .

सघन विह्वलता के इनदिनों में,
जब उदासी ,अविश्वास और आशंका के जीवाणु,
फफूंद की तरह बार बार जन्म लेते हैं,
मैं केवल देखता हूँ,
ईश्वर की सभी कृतियों को,और
ओढ़ लेता हूँ अस्थायी मृत्यु की स्लेटी चादर .

मुझे कभी लगता भी है,
अपने ईश्वर होने की तरह,
जिसकी सृजित दुनिया भरहरा कर गिर पड़ी हो उसके ऊपर,और
देवता सुन रहें हों विध्वंस और आर्तनाद के स्वर,
मुस्कुराते हुए .

अदमित स्मृतियों के झरनों के बीच,
पानी की आँख पर उगते हैं नमकीन फफोले,
मैं इन दिनों देखता हूँ एक स्वप्न,
जिसके लिए कत्तई जरुरी होता नहीं सोना,और
भर लेता हूँ आकाश को अपनी बाँहों में .

(आकाश ! तुम्हारे असंख्य नामों से मुझे याद नहीं एक भी नाम )
दरअसल,यह बात उनदिनों के बारे में है,
जब आपके अस्तित्व का बड़ा हिस्सा अँधेरे में कलाबाजियां खा रहा होता है,और
आप सड़क पर चलते मज़मा देखने को रुके,
आम राहगीर से अधिक कुछ नहीं कर सकते .

यह अमूमन ऐसे दिन होते हैं,
जब आप घर से शांति और सुख ढूँढने को निकलते हैं,और
नीम की दातुन चबाते हुए लौटते हैं .

यह बात उनदिनों के बारे में है,जब
विषाद अगस्त के घने बादलों की तरह आपको ढक रहा होता है,और
आप छातों से डरने लगते हैं,
एक तनाव भरी चुप्पी परछाई सी साथ चलती है
दरअसल यह दिन देह और आत्मा की कुट्टी के दिन होते हैं,
दो बच्चे आपके भीतर लड़ झगड बैठ जाते हैं,और
अपने होंठों पर एक ऊँगली चिपका लेते हैं .

ज़िन्दगी से हारने का डर काली छाया सा साथ रहता है रात भर,
मौत के अंतिम क्षणों की छटपटाह्ट ,और,
हताशा की एक हूक आपके भीतर दही मथती मधानी सी घूमती है,
घुप्प अँधेरे में चुप्पी साधे बैठे आप,
कुर्सी पर बैठे एक पुरुष के छाया को दीवार पर छपा देखते हैं,और
अचानक महसूस करते हैं उसकी गर्दन एक ओर लुढकी है,

यकीनन ...........नींद से !

आपकी यादें धुंधला जाती हैं,कि
आप कुछ याद करना ही नहीं चाहते,
एक मीठी सी ऊँघ में,
चलते आप एक वीरान गलियारे के अंतिम सिरे तक जाते हैं,और
अपने अंदर देखते हैं .
"बात करने से पीड़ा कम हो जाती है ,पर कविता मर जाती है |"कह कर कवि ने संवाद के सारे रास्ते बंद कर दिए |खुरदरी ज़मीन के ऊपर,पश्चाताप की दूब थी| वह जानता था यह दूब बहुत दिन नरम नहीं रहेगी |पर भीतर बैठा कोई कह रहा था,अंतिम दिन भी तुम यहाँ आओगे ,तो तुम्हे फूल जैसी घास के तिनके मिलेंगे | इस कोने में,अकेले बैठे तुम चबाते रहना ....घास का अंतिम सिरा और घुमा कर देखना घास के फूल को भी |तुम्हारी दो कनपटियोंमें से एक गूँज रही होगी मौन से ....दूसरी कोलाहल से :-

संकरी नदी के मुहाने पर बैठ,
उसने जाना,
समुद्र को आता ही नहीं,
प्रेम में होना,और करना प्रतीक्षा,
नदी के उस तक पहुँचने की,
चलते -चलते ही जान गया था वह,
प्रेम और कुछ नहीं,
प्रतीक्षा का अनंत विस्तार है |

हमारी शपथें और प्रतिश्रुतियां,
हमारी प्रतीक्षाओं जितना ही रहते हैं,
भूमि और व्योम के बीच,
असंभव मिलन के क्षणों का,
साक्षी भर होने को,की उसके बाद,
सांस समझ जाती है,
कैसे मिलाये लय दूसरी सांस से |

तय है ,कोहरे से घिरी गिरीमालाएँ,और
उफनते समुद्र पड़ते हैं,
मेरे तुम तक पहुँचने के रास्ते के बीचोबीच,
बलवती हो भाषा जो कहें तुमसे,
मेरे प्रेम ,मेरी प्रतीक्षा की कथा तुम्हे,
एक ही सांस में,की
कवि ने तय किया है,
मौन रहना,कविता तुम्हारे लिए ही |
99451
दरअसल आजकल मेरे भीतर एक उबलते मौन के सिवा कुछ नहीं .

एक नितांत दिग्भ्रमित दृष्टि से मैं अंदर झांकता हूँ
वहां किसी पांव के पीछे छूटे निशान हैं ,
गर्मियों की एक लम्बी सूनी दोपहर सा वीराना ,
सीने का कोई चोर रास्ता खोल दाख़िल होता है
पसरी देह की नीली नसों से बहते एकांत को छलनी से छानता हूँ,
देह की दराजों से छलकता एक अन्धकार,
रास्तों पर अगले उत्सुक मील पत्थर सा खड़ा है .

जहाँ गलियारा ख़त्म होता है,
वहां से भूरे से काला होता आकाश दीखता है,
आधी रोटी सा चाँद आकाश की तरफ बुलाता है,
एक आवेग भीतर भीतर लहराता है ,और
कहीं भी ना जा सकने की थकन में डूबे पाँव,
आत्मा को काले आकाश की ओर जाने देते हैं ,दीगर
तुम इसे शुक्र कहते हो और मैं कुछ भी नहीं .

चाहे हुए एकांत की बगल में उगते हैं कत्थई गुलाब ,
टपके हुए एकांत में उड़ते हैं आक के फूल,
देर तक इनके पीछे दौड़ते तुम पकड़ लेते इन्हें ,और
हल्के हो जाते हो फूल के भार से भी,
बस एक पिघलता ,बीमार ग्लेशिअर तुम्हारे सीने पर पड़ा रहता है,
तुम्हारे अंतिम बूँद हो कर फर्श और दरवाजे की झिर्री से बह निकलने तक .

सीमान्त आद्रता से भरी आँखें,
क्षमा याचना में इश्वर के सामने घुटने टेके बैठे तुम ,
एक अभंग चुप्पी को अडोल जीते हो,
गहरी काली रात के सफेद होने तक,
एक ना दिया ,एक ना लिए चुम्बन तुम्हारे होंठों पर दहकता रहता है,
जुगनू की सी एक लाल रौशनी,
तुम्हारे चेहरे को पोतती रहती है,
अन्तस् की कालिमा से जुगनू की उजास के रंगों तक .
दरअसल आजकल मेरे भीतर एक उबलते मौन के सिवा कुछ नहीं .

एक नितांत दिग्भ्रमित दृष्टि से मैं अंदर झांकता हूँ
वहां किसी पांव के पीछे छूटे निशान हैं ,
गर्मियों की एक लम्बी सूनी दोपहर सा वीराना ,
सीने का कोई चोर रास्ता खोल दाख़िल होता है
पसरी देह की नीली नसों से बहते एकांत को छलनी से छानता हूँ,
देह की दराजों से छलकता एक अन्धकार,
रास्तों पर अगले उत्सुक मील पत्थर सा खड़ा है .

जहाँ गलियारा ख़त्म होता है,
वहां से भूरे से काला होता आकाश दीखता है,
आधी रोटी सा चाँद आकाश की तरफ बुलाता है,
एक आवेग भीतर भीतर लहराता है ,और
कहीं भी ना जा सकने की थकन में डूबे पाँव,
आत्मा को काले आकाश की ओर जाने देते हैं ,दीगर
तुम इसे शुक्र कहते हो और मैं कुछ भी नहीं .

चाहे हुए एकांत की बगल में उगते हैं कत्थई गुलाब ,
टपके हुए एकांत में उड़ते हैं आक के फूल,
देर तक इनके पीछे दौड़ते तुम पकड़ लेते इन्हें ,और
हल्के हो जाते हो फूल के भार से भी,
बस एक पिघलता ,बीमार ग्लेशिअर तुम्हारे सीने पर पड़ा रहता है,
तुम्हारे अंतिम बूँद हो कर फर्श और दरवाजे की झिर्री से बह निकलने तक .

सीमान्त आद्रता से भरी आँखें,
क्षमा याचना में इश्वर के सामने घुटने टेके बैठे तुम ,
एक अभंग चुप्पी को अडोल जीते हो,
गहरी काली रात के सफेद होने तक,
एक ना दिया ,एक ना लिए चुम्बन तुम्हारे होंठों पर दहकता रहता है,
जुगनू की सी एक लाल रौशनी,
तुम्हारे चेहरे को पोतती रहती है,
अन्तस् की कालिमा से जुगनू की उजास के रंगों तक .

उसके बहुत पिए होने की निशानी ,उसकी आँखों में तैरते लाल डोरे नहीं होते थे . उसकी अंग्रेजी होती थी ........उसकी पढ़ी हुई नामचीन कवियों की कविता की पंक्तियाँ होती थीं .कहावतें होती थीं . ऐसी ही एक रात उसने बताया ..............ने कहा है ,"ज़िन्दगी को मोमबत्ती की तरह जियो . इसे दोनों तरफ से आग लगाओ .........बेशक यह कम देर जलेगी,पर उस रौशनी में तुम्हारी आँखें चमक उठेंगी ." ऐसे वक़्त में ,मैं सिर्फ उसका चेहरा देखा करता था ........बोलते हुए शब्दों के जो परिंदे उसके चेहरे पर उड़ा और बैठा करते थे ........उनकी उड़ान देखता था ,और अलसाई थकी वापसी .ऐसे में एक दिन उसने कहा :-

बाहर अप्रैल की एक मीठी ठंडी शाम थी,
बहुत दिनों बाद पत्ते अपनी अपनी डालों पर लौट रहे थे,
स्पर्श की एक पुरानी जीवित पहचान के बावजूद,
वे पूछ रहे थे एक दूसरे से उसका नाम ,
एयरपोर्ट की कतारों में खड़े यात्रियों की तरह,
काउन्टर पर बैठा क्लर्क जब पासपोर्ट से नाम पढ़ते हुए भी,
सवालिया ज़बान में कहता है,"नाम ."

अपनी मर्ज़ी का पेड़ चुन कर,
उस पर नर्म हरी कोंपल की तरह उग आना,
अपने पिछले जन्मों को भूलते हुए,
एक नई यातना का चुनना है,
यह लगभग वैसा कुछ पाना है,
जो आप खो चुकते हैं बचपन से बुढ़ापे के बीच कहीं .

आप एक लंबे वकफ़े के बाद छूते हैं अपने प्रेम को,
लंबी आस्तीन वाली कमीज़ से बाहर झांकती आपकी उँगलियाँ,
नापती हैं स्पर्श को त्वचा की सौम्यता से ,
एक ठंडी सिहरन को अपने भीतर कहीं दबाते आप,
मुस्कुराते हैं एक देश के रहने वाले उन बाशिंदों की तरह,
जो मिलते हैं सात समुद्र पार कहीं .

"मछली री मछली तूने कितना जल पिया,
तू जाने या जल जाने "की तर्ज़ पर थोड़ी देर भरपूर साथ रहे लोगों की जेबों में,
एक दूसरे के साथ के टुकड़े भरे होते हैं,
जिनके साथ वे जीते हैं उम्र भर .

(बोलते बोलते वह अचानक सो गया ,देर तक मैं उसके चेहरे पर बैठे एक उदास स्लेटी कबूतर को देखा किया )
कल देर रात लौटने पर
मैंने अपना चश्मा जूतों वाले रैक में रख दिया,और
जूते पढ़ने की मेज़ पर

एक तवील तकलीफदेह नाकाम सफ़र से लौटने पर,
आसाइशयों की जगह किसी और चीज़ से बदलना
बहुत गलत भी तो नहीं है .

(कृपया इस बकवास को राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन कमेटी के चेयरमैन सरदार मनमोहन सिंह और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री विजय बहुगुणा के संद्धर्भ में ना पढ़ा जाए .)
आज बचपन के क्लास रूम बहुत याद आ रहें हैं .उनसे भी अधिक काले पेंट से पुते ब्लैकबोर्ड, सफेद चाक की सिगरेट सी वह डंडी .......सबसे ज्यादा हरे कपड़े वाला वह लकड़ी का डस्टर . हिसाब (तब हम इसे गणित नहीं कहते थे ) पढ़ने वाली मास्साब बड़ी तेज़ी से ब्लैक बोर्ड को भरते जाते ....त्रिभुजों और आयतों से .सबसे पास बैठे लडके पर होता था वह बोर्ड साफ़ कर ,उसे फिर से लिखने लायक बनाना .

वर्ग ,त्रिभुजें ,आयतें और वह सब जो सलेब्स में था आपने खूब समझाया मास्टर हजारी राम जी ...........बस यह सिखाना भूल गये कि ज्यामिति और ट्रिगनोमैट्री से कहीं परे किसी दिन कोई और आकार भी उभर आता है .............गणित के सारे नियम वहां चुप हो जाते हैं .

ब्लैकबोर्ड साफ़ कर दिया गया है ....चाक के घिसने से गिरे पाउडर के सिवा कुछ नहीं है .डस्टर है .....बखूबी हरे कपड़े से झर रही है सफेदी भी .........और अब मैं वह सब लिखना चाहता हूँ जो मुझे गणित की किताब में पढ़ाया नहीं गया था .........बस इनदिनों मेरे पास चाक नहीं है .

ज़िन्दगी जीते हुए हम बहुत सी ऐसी चीज़ें यह सोच नहीं उठाते ,कि यह किस काम आएगी . मास्टर जी ........मैंने उन टुकड़ों में से एक भी उठाया होता ,जो मेरे भटके ध्यान को बोर्ड की ओर खींचने के लिए आपने मेरी ओर फेंके थे .................तो मैं यकीनन एक कविता लिख सकता था .

(आत्मनिर्वासित ,कलम उठा एक भी कविता ना लिख पाने में समर्थ एक कथित कवि का इकबालिया ब्यान )
कृशकाय,निढाल वृद्ध ने अपनी आँखें घुमाई,

पैतयाने बैठे हुए पौत्र को देख मुस्कुराए,

अस्फुट उनके अधरों से निकला ,

बनारसीदास ............और होंठ एक असीमित विस्तार में फ़ैल गये .

पैतयाने बैठे पौत्र ने पाया,

बाबा धीरे धीरे उतर रहें हैं विस्मृति की एक गहरी खाई,

बनारसीदास उनसे ग्यारह वर्ष पहले सिधार चुके बालसखा थे .

बुजुर्ग बतिया रहे थे अपने सखा से,

किसी नीले कंचे के बारे में

घबराया पौत्र खोजता निकला किसी को ,

जो हो सके मददगार उस घडी,और लौटा

एक अनपढ़ क्न्पोउडर के साथ .

बाबा कंचे बांटते हुए दूर कहीं चले गये .



लोहे की गद्दी वाली मेज़ पर लेटते हुए,

वह सोच रहा था ,

क्या वे जो एक बार चले जाते हैं,

कभी नहीं लौटते ?

***
स्मृतियों में भी .
7323
दरअसल सबसे बुरा होता है,

कवि की नसों में दौडती कविता का मर जाना ,

यकीनन होते होंगे कवियों के खून में

लाल और सफेद रक्त कणों की तरह ही,

कविता के भी कुछ कण,

मस्तिष्क ,हृदय और सारे बदन में दौडती कविता ,

कलम थामे खड़ी उँगलियों तक पहुँचने से ,

ठीक पहले मर जाती है .

कवि एक अजन्मे बच्चे की मौत पर रोता ,

अकेला खड़ा एक थका आदमी है .

---------दीपक अरोड़ा -----
उम्र की धुंध में खोये,हमारे हाथ टटोलते रहेंगे,आपसी स्पर्श की खोई कुंजियाँ .सख्त हुए उँगलियों के पोर,गहरी हुई हथेलियों की दरारें,अजीब तरीके से असंभव कोनों पर घूम चुकी हस्त रेखाएं,इतिहास को फिर से लिखेंगी .पता है ,छुअन को अब भी नहीं आता ,छुए जाने का सटीक अनुवाद .स्पर्श उतने ही अनपढ़ हैं ...अब भी वैसे ही लिखते हैं,देह पर प्रेम को प्रेम !सोचता हूँ,अगर आँख नहीं जानती जताना,और होंठ नहीं जानते ,एक जामुनी स्याही में लिखना,तो कितना मुश्किल था...किसी का किसी को कहना "प्रेम "

अरसे बाद पुराने पत्र मिलते हैं,

किसी अखबार के नीचे दबाये ,या

किसी ऊँचे रौशनदान में रखे,

सलीके से तह किये हुए,

गर्द का पहरन पहने .

मेरे हाथ झाड़ते हैं उनपर उग आई धूल,

सच्चाई का सख्त खुरचन,

सफाई के इरादे से उतारता है,

दिल-ओ-जहन पर उग आई फफूंद को,

मैं देखता हूँ तुम्हे रेज़ा रेज़ा खुद से झड़ते हुए .

लाल स्याही से लिखे ख़त,

सहक को बदल लेते हैं काली स्याही में,

गर्द से गुफ्तार करते,

बारी बारी से लेते हैं तुम्हारा नाम,

लिखे हर्फों में से एकाएक गिर पड़ता है,

मेरा नाम .

ख़ामोशी, एक जंग आलूदा छैनी के गिरने के आवाज़ है .

जंग की पतली चमड़ी में,

मैं खुद से अलग होता हूँ ,कि

नहीं घड़ पाया वह घड़ी,जिसमें,

मंत्रोचार से मोहक तुम्हारे नाम में

टपकता मैं भी |

करीने से जूते उतार रैक में रखने के बाद

मैं जड़ के करीब से काटे गये चीड़ के तने की तरह

अपने बिस्तर पर गिरता हूँ .

बिस्तर कमोबेश तुम्हारी कल्पित प्रेमिका का स्पर्श है,

वह तुम्हें सहता ,सहलाता ,दुलारता है ,और

समेट लेता है तुम्हें किन्ही कल्पित बाँहों की तरह

तकिया ईमानदारी से एक सर को गोद में रखे रहता है .

लेटे हुए तुम अपनी देह छू देखते हो,

पहनी हुई कमीज़ को तुम्हारी हाथ सहलाता है,

सिद्धहस्त कपड़ा बेचने वाले की तरह,

तुम्हारी तर्ज़नी और अंगूठा एक साज़िश रचते हैं,

तुम्हारी उँगलियों के पोरों पर सोये स्पर्श की आँखें खुल जाती हैं ,

एक पीछे छूटा शहर अपनी गंध से तुम्हे भरता है,

आसक्ति और वैराग्य के धागे से बुने पालने में,

देर तक तुम झूलते हो,

प्रकाश और आँसू तुम्हारी आँखों को धुंधला देते हैं ,और

तुम बंद कर देते हो कमरे में जलती ट्यूब लाईट को ,

उसने कहा था ,"पुरुष नहीं रोते ."

छोटे से संशोधन से मैं कहता हूँ ,

"पुरुष प्रकाश में नहीं रोते .

स्मृति एक नीले बैंगनी रंग की मोटी ज़िद्दी मक्खी है,

जो देर तक तुम्हारे कानों में गुनगुनाती है ,

स्मृति ढेरों एक दूसरे से लिपट कर बने रेशों की रस्सी है,

पूरे पुरुषार्थ से भी तुम नहीं खोल सकते सिर्फ एक रेशा .

स्मृतियों में ही कहीं एक छूटा हुआ उदास रेलवे स्टेशन है,

स्मृतियों ही में कहीं है एक रेशा जिस पर लिखा है,

कभी कहा गया एक उदास शब्द "विदा ".

विदा .......शब्दकोष का सबसे रुआंसा शब्द है,

इस अँधेरे कमरे में अब भी तुम्हारी देह भय से कांपती है,

एक दूसरे को कहते हुए विदा ठंडी सुईयां देह में चुभती हैं,

गहरी काली रात का सन्नाटा कपड़े बदलता है,और

बिरहा गाते किसी लोकगायक की हूक में घुल जाता है .

दिन निकल आया है ,

वह आँसू जो आँख में चमकता है ....अब गिरता नहीं .

---------दीपक अरोड़ा---------
154756Like · ·
खंडित प्रतिमाओं वाले देवालय,
अपभ्रंश किसी लिपि में ताड़पत्रों में अंकित कोई काँपता सा श्लोक,
हिम आच्छादित बातचीत के पिघलते अवशेष,
स्वप्निल प्रेम के क्षणों में तीखी सीत्कार को म्यान में रखते सेवक योद्धा,
आत्महंता प्रेम को करुण स्वर में रोते दैत्य,
हथेली के ठीक बीच,एक मुस्कान में दोनों होंठ खोले छोटी सी सीप,

***

सबके साथ ,सबसे दूर होते ,

होता तो हूँ मैं -क्या तुम्हारे साथ नहीं ?

***

त्वचा छूकर निकलते अँधेरे में,

अकेली काठ थाम संगति पाता मैं,

अपने भीतर की दुनिया को पहाड़ सा लादता हूँ मैं ,

झुकी पीठ और डोलते पाँव वाली मेरी कदमताल,

अरण्य के एकांत में खिले जंगली फूल तक की अशेष यात्रा है .

***

एक विकल प्रतीक्षा में मेरा परिवेश,

मेरे भीतर भरता है एक गाढे असंतोष की तरह,

अँधेरे कमरे में मोमबत्ती जला मैं नहीं टोहता रास्ता,

बिना किसी कुर्सी, मेज़, से टकराए अपने बिस्तर तक पहुँचने को,

मैं अपने भीतर प्रकाश कर तुम्हे छूना चाहता हूँ,

तुम जो बहती रहीं सदा मेरे भीतर ,

बरसाती नदी सीं
बड़े मुक्कदस तरीके से,
उसने कहा,
कुछ दिन बात ना करना मुझसे,
जो सच ही चाहते हो उबरना मुझ से .
***
झील की तली में तपस्वी की तरह लेटते,
मैंने हामी में बच्चों सा सर हिलाया .
***
सतह पर तैरते सांस के गुबारों को छू,
उसने पत्थर पर लिखा मैंने कहा माना ,
***
फूटते बुलबुलों से पता चला उन्हें,
तैराक़ था,भर फेफड़े उतरा था तल तक
***
थकी सांस से थक गया,
थोड़ा और ,कुछ ज्यादा
ओस में भीगी चिड़िया ने पर फड़फड़ाये,और ज़मीन पर गिरती पानी की बूँद को देखा .वृक्ष ऊँचा था .....पत्तों के बड़े बाहरी फैलाव के साथ ..उडने से पहले चिड़िया ने अपनी भाषा में वृक्ष को दुआ दी ..,"यूँ ही रहना ,कि कर सके,यायावरों और उनके सपनों की सुरक्षा तुम्हारी छाया .रेत के टीलों की उन्नत गोलाई .....रात भर पड़े कोहरे से भीगी थी .दूर कहीं एक संतरी से दिए की लौ थी .....उठती हुई ....अभी जल्दी थी यह कहने को कि सूर्य उदय हो रहा है ......फिर इस दिशा को तो पूरब भी नहीं कहते ना ....चिड़िया ने उड़ते हुए सोचा

नई भावना से ओतप्रोत, हतप्रभ लड़के ने,

रुई का आधा फूल बिनौले सहित कान में रख लिया,

राग विभास,उसकी लवों को छू कर निकल गया,

एक स्वप्निल क्षण से रेंग कर बाहर निकलते हुए,

मुदित वह,झूलता रहा देर तक

चाहना ,कल्पना ,स्वप्न सत्य के बीच कहीं .

अच्छा लगा उसे,

अखबार,कैलेंडर और घडी जैसी चीज़ों से दूर होना,

खुश नहीं था वह,

अपनी छिली,खुली ,उधडी और उछाली गयी आत्मा के साथ,

पर बेहतर था कितना,

ना जानना,आज क्या तारीख है .

नीलाभ पृथ्वी के माथे के ठीक नीचे,

चमचमा रहीं थीं विस्मृति के आइसबॉक्स में रखीं आँखें,

जिनकी छूई मुई की तरह फैलती सिकुड़ती पुतलियों में रहता था लिखा,

मुझे अपना ख्याल रखने दो .

अभी सूर्योदय भर था,

सिवा उसके कोई नहीं जानता था,

ठीक सूरजमुखी की तरह उसकी पंखुड़ियां मुड़ जायेंगी,

अपने ही भीतर,

सूरज के छिपने की आहट भी आने से पहले,

रात भर टपक ओस पंखुड़ियों की पीठ पर ज़ख्म करेगी .

(आत्मतृप्ति की सी उदासीनता को,किताब की तरह कांख में रख सांझ को घर लौटते आवारा लडके के संस्मरण में यूँ अंकित हुई यह शाम )
बस्स ! आधी रात के सिवा ,

जब भी चाहो सुन पाओगे मेरी आवाज़,

कुछ घंटे जब मुझे पढ़ाने पड़ते है,शैली ,बायरन और कीट्स ,

उन सब के बिना मैं पढ़ती और पढ़ाती हूँ,

तुम्हारी कविता .

गिरते पत्थरों वाले खंडहर में खड़ा,

मैं देखता हूँ एक पर एक रखे पत्थरों को फिसलते हुए,

बेकार बैठा एक स्लेटी कबूतर,

पंख फड़फड़ा उड़ता है इस कोने से उस कोने तक .

खुले रास्तों से भी बाहर ना जाता कबूतर,

मुझे हैरत से देख पूछता है ,"तुम यहाँ कैसे ?"

मैं उसके पंख देखता हूँ .........मुहँ से मौन हो कर .

(जो तुम नहीं तो क्या हुआ ........कबूतर जानता है मेरा सवाल )
कुछ दिन बिलकुल अजीब होते हैं | हाथ में तलवार भी हो ,तब भी क़त्ल नहीं होते |एक भार छाती पर पड़ा रहता है ....मिलीमीटर में सरकाते -सरकाते उसे हटाना पड़ता है | हट जाने पर भी एक नीला जामुनी निशान देर तक बचा रहता है |यह दिन,अनधिकृत विरह के होते हैं ...ऐसा उस लड़के ने कहा था ,जिसकी आँख तक का पानी नीला था ...और मुझे यही लगता रहा ,सुर्ख आँख में नीला पानी कितना अटपटा सा लगता है | तभी उस लड़के ने यह भी कहा :-

इतवार की सुरमयी शाम के,
पंखों पर हाथ फेर लड़के ने,
उसे मोहासिक्त आँखों से देखा, और ,
ट्यूब लाइट का खटका दबा दिया,
रात गहराने तक लड़के ने इतवारी शाम,और
शाम ने लड़के की आँखों में देखा,
दोनों को इंतज़ार की हद पता थी |

मेज़ की नुक्कर पर पर बैठी शाम ने,
अपना पैर कुर्सी पर रखते हुए,
उन तमाम वक्तों को याद किया,
जब -जब उन्हें मिलना था,
पर समय गुज़ारना पड़ा,
कभी कपडे धोते,कभी खाना बनाते हुए,
लड़के ने सिगरेट के सारे मार्के दोहराए,कि
जिनके होने से लड़ा गया बेचैनियों से,
पुरानी किताबों के सारे मुड़े हुए कोने,
सीधे कर पढ़ा गया भूली इबारतों को,
समय की झुकती मूंछों को बल दे दिए,
दोनों कोनों से बांधे गये सूखे हुए गुलाब |

दोनों ने छत्त पर बैठ खेली अन्ताक्षरी,
झूठ बोलने वाले काले कौवे को सिखाया गया,
रीते मटकों से पानी पीने का सलीका,
शाम के घुटने के निशान को सहलाते हुए,
याद किया गया केले के छिलकों से फिसलने का सबब,
लम्बी काली गलियों के आखरी कोनों में,
अनजान सायों को लिपटे अनदेखा किया गया |

पुरानी बेबाकियाँ रसोई के कपड़ों में लपेट,
तय किया गया नया आटा गूंथना,
तेल लगे हाथों में रख,
हाथ से हाथ घिस कर समय लम्बा किया,
चिपकते मोह को खुरचा गया तीखी छुरी से,
पुराने नामों को दीवार पर कोयले से घिसा,
कुछ इस तरह वह दिन जिबह किया |"
खंडित प्रतिमाओं वाले देवालय,
अपभ्रंश किसी लिपि में ताड़पत्रों में अंकित कोई काँपता सा श्लोक,
हिम आच्छादित बातचीत के पिघलते अवशेष,
स्वप्निल प्रेम के क्षणों में तीखी सीत्कार को म्यान में रखते सेवक योद्धा,
आत्महंता प्रेम को करुण स्वर में रोते दैत्य,
हथेली के ठीक बीच,एक मुस्कान में दोनों होंठ खोले छोटी सी सीप,

***

सबके साथ ,सबसे दूर होते ,

होता तो हूँ मैं -क्या तुम्हारे साथ नहीं ?

***

त्वचा छूकर निकलते अँधेरे में,

अकेली काठ थाम संगति पाता मैं,

अपने भीतर की दुनिया को पहाड़ सा लादता हूँ मैं ,

झुकी पीठ और डोलते पाँव वाली मेरी कदमताल,

अरण्य के एकांत में खिले जंगली फूल तक की अशेष यात्रा है .

***

एक विकल प्रतीक्षा में मेरा परिवेश,

मेरे भीतर भरता है एक गाढे असंतोष की तरह,

अँधेरे कमरे में मोमबत्ती जला मैं नहीं टोहता रास्ता,

बिना किसी कुर्सी, मेज़, से टकराए अपने बिस्तर तक पहुँचने को,

मैं अपने भीतर प्रकाश कर तुम्हे छूना चाहता हूँ,

तुम जो बहती रहीं सदा मेरे भीतर ,

बरसाती नदी सीं .
एकान्त की सी निस्पृहता से,
तुम्हारे पीछे छूटी चीज़ों को छूता मैं,
कगार पर आ गये कछुए की तरह,
हर बार वापिस लौट जाता हूँ नदी में,
मेरी हरी टोपी को कोई फर्क नहीं पड़ता,
बस,तुम्हारी आवाज़ की सीलन,
देर तक कान में बनी रहती है .
***
एक अबूझ अवसाद के तीखे किनारों पर हाथ फिराता मैं,
पाता हूँ,बाहरी भर नहीं यह,
दो ध्रुवों के बीच के अंतराल सा गहरा स्वर,
कैकयी के विलाप सा घेरता है मुझे,
तुमसे कभी बाहर निकल सकने की सोच,
शीशे के भीतर देख,
थू कह सकने सी भी सशक्त होती ,तो
घाट किनारे बैठ मैं देखता,
कितनी लम्बी हुई बरगद की दाढ़ी,
कल और आज के बीच फैली रात में .
***
पार तो नहीं,कगार पर खड़ा मैं,
आसमान चीरने जितनी व्याकुलता से बोलता हूँ ...प्रिये !
मौत के पल के आने तक की तत्परता से ,
मेरे जीवन के समूचे कंगलेपन को,
सामर्थ्य भर स्निग्धता से सोख लेतीं है
तुम्हारे करीब होने की आँख सी अनुभूति .

(आँख गढा मैं देखता हूँ तुम्हे सर से तलवों तक,पाता हूँ ,
कहीं नहीं हो तुम,उस एक हरी पत्ती के सिवा जो नहीं सूखी कभी ज्येष्ठ में,पूस में )
बड़े मुक्कदस तरीके से,
उसने कहा,
कुछ दिन बात ना करना मुझसे,
जो सच ही चाहते हो उबरना मुझ से .
***
झील की तली में तपस्वी की तरह लेटते,
मैंने हामी में बच्चों सा सर हिलाया .
***
सतह पर तैरते सांस के गुबारों को छू,
उसने पत्थर पर लिखा मैंने कहा माना ,
***
फूटते बुलबुलों से पता चला उन्हें,
तैराक़ था,भर फेफड़े उतरा था तल तक
***
थकी सांस से थक गया,
थोड़ा और ,कुछ ज्यादा
प्रोफेसर मेहरबान थे | यार मजेदार .....नॉनवेज चुटकलों पर हँसते हँसते अक्सर चाय छलक जाती थी |पंजाबी गालियों का मौसम था |गालियों के अजीब जोड़ घटाव किये जाते थे | किताब का यह पन्ना इसका किनारा मोड़ कर बंद करना था आज ,ताकि बवक्त ज़रूरत खोला जा सके |पर उन्हीं दिनों यह भी हुआ --

लड़की को काटते काले ततैये को,
मुट्ठी में भर लिया लड़के ने,
सांस छोड़ने से पहले ततैये ने,
काट लिया मुट्ठी में शुक्र की नियत जगह पर,
उस काले निशान को,
अब भी सहलाता है लड़का,
सपनों में लड़की से मिलने से जरा ही पहले |
***
एक दिन पीले सूट में,
बेडमिनटन खेलती लड़की ने बताया,कि
पीले गुलाब बेहतर होते हैं कत्थई गुलाबों से,कि
पीला रंग सफेद कर देता है,
रोज़ काले होते जाते दिलों को भी,
समझाया कि तय होता है एक दिन,
हरे पत्तों का भी पीला होना,
बताया की काले तेसे से,
घडी जातीं हैं,बच्चों के लिए पीली गिल्लियां,कि
घडते हुए देखने पड़ते हैं गिल्ली के दोनों सिरे |
***
लड़के को समझ आया,
वक़्त की बगल में नहीं उगते काले बाल,और
बिना किसी वजह से टपक जाती हैं,
घडी की तीन सुइओं से कोई सी भी,
सीने में चौथा सुराख़ बनाने भर को,
बेकार खवाबों को लपेटे चलने से,
कहीं बेहतर होता जेब भिखारी के कासे में ख़ाली करना,
सबसे अच्छा तो होता है,
खिड़की से झलकते अपने अक्स को देखना,
और गिन लेना मुहांसे एक एक करके,
कह देना खिड़की से ही,
कमबख्त ! कोई जगह तो छोड़ी होती चूमे जाने को|
***
लड़के ने बराबर रखे,
एक केंचुआ और कछुआ भी,
ऊँगली से सहलाया दोनों को,
केंचुए की खाल से रिसती ऊष्मा से भीगा,
हाथ पलट महसूस किया कछुए का ठंडापन,
पानी में छोड़ने से पहले दोनों को चूमा,
ईश्वर से प्रार्थना की,और कहा
इन दोनों के बीच का कुछ बनाते मुझे तुम |
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हरीतिमा की अंतिम हद तक हरी दूब,
सम्पूर्ण नीलिमा से भरे आकाश,
बादामी,भूरेपन से सपनों में महकती धरती,
तुम्हारे होने पर अब भी बचे हुए विश्वास के ईश्वर,

आभार तुम्हारा ...........अनास्था के इस समय में भी बचे रहने को,
(समर्थ का जीना जीना है .....................कितना पहले कहा था उन्होंने ......कितनी देर से समझा मैं )

और फिर ,
जैसा कि हमेशा होता है,
धीरे से बदल जाती है दुनिया,
एक शोर से भरी सड़क से,
बिना पानी की झील सी स्तब्धता में,
डूबती तैरती,हरे पत्तों के बीच के अन्धकार सी रौशनी,
मेरे चेहरे पर तुम्हारा चेहरा छाप देती है .

अपने होने के भीतर भर जाता है,
तुम्हारे होने का पानी,
प्रेम में होने की निरीहता,
चेहरे से ओले की तरह टपकती है,
मैं जानता हूँ उन पलों में होता हूँ मैं,
कील निकले मुहांसे सा ,दीगर
कोई मिला कर नहीं देखता मेरे चेहरे को,
मेरे चेहरे से उस एक पल में .

मेरी मुस्कराहट में खाई में उतरते होने सा अवसाद,
मेरी नाक की नोक पर टिकी शिकारी कुत्ते सी सूंघ,
तुम्हे मेरे आसपास टोहती है,
अपने भीतर मैं देख रहा होता हूँ,
घुप्प अँधेरे में फड़फड़ा उड़ते कबूतरों को .

(बहुत दिन निर्वात में तुमसे बतियाते,आज आईना देखा .....तो पढ़ा मैंने अपना चेहरा भी )

 
मेरे यहाँ
आजकल सावन है
दिन में कितनी कितनी बार
बरसती हैं फुहारें
कविता की
आस-पास की सारी धरती
तृप्त है,और
उग आई है दूब उस par
हरी हरी दूर तक फैली हुई

मन बहुतो बार हुलसता है
उकसाता है
जूते उतर कर इस दूब पर चलने को
और ,मिटटी की सोंधी सोंधी
गंध ,नथुनों में भर लेन को
साथ में अनायास
ही मिलते गौरव को
और लालसा में भी होने को
किसी पगडण्डी का
पहला पथिक.
सन बानवें का कोई दिन था |कालेज से उकताए मैंने,और मुझसे उकताए कालेज ने पंजाब यूनिवर्सिटी प्रेस से छपे,एक ब्लोटिंग पेपर नुमा चीज़ पर समझौता कर लिया | मैं कालेज के सामने भीम के टी स्टाल पर आकर बैठ गया,और चाय के साथ ब्रेड पकौड़ा खाने लगा |गुलमोहर के पेड़ों से भरे,लम्बे वीरान गलियारों वाले इस कालेज का साथ ,बुरा नहीं था,बाद के सालों में सोचा मैंने |उन्हीं दिनों यूँ भी हुआ :-

लड़के की उँगलियों की पोरें,
री,नरम कोंपलों से भर गयीं,
जहाँ हाथ छूता,
एक हरा निशान झांकता रहता दीवारों से भी,
सवालों ने पहन लिए,गुलाबी जूते,
मंगलवार को कहा जाने लगा ट्यूसडे,
सिर्फ पेपर के दिन ईश्वर याद करने वाले,
सवा रूपये की बूंदी के साथ,
चौखटों पर माथा रगड़ने लगे,
मेहँदी लगे एक जोड़ी हाथों में,
प्रसाद रखने के लिए,
छोड़ दी गयी शाम की खुशनुमा आवारगी,
बीयर की बोतल को दिलाया गया यकीन,
यह आस्था नहीं,प्रेम है,
मेरा इंतज़ार करना |
***
छत्त पर खड़े होकर उडायीं गयीं पतंगें,
माँझे को सूता गया,
विरह के कांच और लाल रंग के साथ,
उँगलियों पर चढ़ा लिए गये गुबारे,
आकाश तक उड़ने दिया गया नीली पतंगों को,
हवाओं को उलझाने दिए बाल,
कोहनियों को छिलने दिया दीवार की रगड़ों से,
समूह चित्रों के लिए ,
फोटोग्राफरों को बोला गया, प्लीज़ !
कपडे वाले चाचा से पूछा गया,
उनकी पसंद का रंग,
उल्टियाँ आने की हद्द तक खाए गये गोलगप्पे,कि
वक़्त काटने का और रास्ता ना था |
***
लड़की ने दोस्तों से पूछा उस लड़के का नाम,
अमूल की चोकलेट लेकर,
और याद किया चोकलेट के साथ कहे जाते,
"आपके प्रिय के लिए उपहार " को
भूरी आँखों की उबलती उदासी को,
आँख के फैलते काज़ल को समेटा,
मुस्कुराते हुए कहा,
ओह्ह ! चीनी से कितना वज़न बढ़ता है,
और प्रेम भी तो मीठा होता है ना ?
***
लड़के ने कुछ नहीं कहा,
लड़की तो चुप थी ही,
समय के हाथ में है इक काले रंग का बुरुश,
तय है,
हरे और गुलाबी का काले के नीचे छुपना,
मैदान में क्रिकेट खेलते बच्चों से कहा उस लड़के ने,
गेंद को छूने दो बल्ले का,
भीतरी या बाहरी किनारा,कि
सारी ज़िन्दगी तकनीक से खेलना गुनाह है |

मुबारक हो तुम्हें नया साल बंधू ,
बस रहने दो अपना तो हाल बंधू |
न प्यार ही सच, न मनुहार ही सच,
न सच्चे,ये सुर और ताल बंधू
मुबारक हो तुम्हें नया साल बंधू |
.बस रहने दो अपना तो हाल बंधू
क्या पूछते हो,दाल में काला क्या है?
यहाँ गलती है,काली ही दाल बंधू |
मुबारक हो तुम्हें नया साल बंधू ,
बस रहने दो अपना तो हाल बंधू |
कभी चाचा की बेटी,कभी बेटी का बेटा
खा गए मेरे देश को दलाल बंधू |
मुबारक हो तुम्हें नया साल बंधू,
बस रहने दो अपना तो हाल बंधू |
सूने हैं महल जिनने बेटे जने,
यहाँ हींज्र्द्दों के घर बजते थाल बंधू |
बस रहने दो अपना तो हाल बंधू,
मुबारक हो तुम्हें नया साल बंधू |
नमस्ते बहिन जी जो कहें सामने से ,
कहें पीछे,कि अच्छा है मॉल बंधू |
मुबारक हो तुम्हें नया साल बंधू
बस रहने दो अपना तो हाल बंधू |
अकेली कविता
कहाँ होती है प्रोढ़,
बिना कवि को साथ लिए ,
उसका हाथ अपने हाथों में थामे ,
सहलाती ,बहलाती
लिए चलती है ,
अतृप्त कामनाओं के जंगल से
किसी ऐसे गंतव्य को
जिसे नहीं जानती
खुद कविता भी |
हर प्रोढ़ कविता के
संग ,एक बल पक जाता है
कवि का |
देह के जंगलों में
भटकते आदिवासी
सबसे अच्छे कवि होते हैं,
जिनका कहा
तुरंत पढ़ती है स्वयं प्रकृति
और देती है ,
एक प्रतिक्रिया
जीती जागती सी |
दरअसल
जिस देश में लोकतंत्र,
एक सूती साडी,
पांच किलो चावल,
और ,एक बोतल
देसी दारु की मार है ,
वहां लोकपाल
किसे दरकार है ?
यार लोग
हुमहुमा कर जिस
सूचना के अधिकार को लाये थे
बताइये!
इस सरकार के लिए
वोह कहाँ
खंजर या तलवार है ?
दरअसल
यह देश बीमार है |
यह हर सुबह कचोरी,
शाम पकौड़ी
रात मिर्च बड़े का
तलबगार है |
मैं सच कहता हूँ ,
मुझे अन्ना और रामदेव में
कोई फर्क नहीं दीखता,
सिवा इसके कि
एक दाढ़ी वाला था
दूसरा कुछ
चमकदार है |

मेरे यहाँ
आजकल सावन है
दिन में कितनी कितनी बार
बरसती हैं फुहारें
कविता की
आस-पास की सारी धरती
तृप्त है,और
उग आई है दूब उस par
हरी हरी दूर तक फैली हुई

मन बहुतो बार हुलसता है
उकसाता है
जूते उतर कर इस दूब पर चलने को
और ,मिटटी की सोंधी सोंधी
गंध ,नथुनों में भर लेन को
साथ में अनायास
ही मिलते गौरव को
और लालसा में भी होने को
किसी पगडण्डी का
पहला पथिक.

रात भरपेट खायींरोटियां
ढाबे की कढी के साथ,
और खायीं मुट्ठी भर
नींद की गोलियां
ताकि आज तो सो सकूं
आराम से
और लेट गया बिस्तर पर
यह सोच कर ,कि नहीं ही
सोचना आज बन चुकी या बन रही
इमारतों के बारे में
आधी रात निकल गयी
नींद नहीं आई.
आधी खुली-आधी बंद आँखों से
देखा ,नींद के फ़रिश्ते को
जिसने कहा,
सचमुच सोने के लिए
जागना ज़रूरी है.
पिछले कुछ दिन से
एक अबोला है
मुझ में , उस में
हम बात ही नहीं करते |
दोनों देखतें भर हैं
एक दूसरे को ,भरी-भरी आँखों से
गोया ! याद करते हैं ,
बीते हुए को |
उन दिनों को
जब मैं लिए -लिए घूमता था
जेब में एक गीला सा प्रेम पत्र
और ,वोह हर सुबह निकलती थी ,
मेरे स्कूल युनिफोर्म से मिलते जुलते कपडे पहन|
पनवाड़ी की दुकान पर खड़ा मैं,
या मुनियारी की दुकान पर खड़ी वो
याद रहते थे हमें
एक दूसरे के टाइम टेबल
बेशक भूल जाएँ संस्कृत के पीरियड के दिन
संस्कृत की किताब ले जाना |
वोह कैसे दिन थे
यह कैसे दिन हैं
बेशक बहुत सा समय रीत गया है बीच से
पर ,अब भी याद हैं हमें
एक दूसरे के टाइम टेबल्स
मैंने जिस दिन सात बजे निकलना होता है
उस दिन वोह नौ बजे सो कर उठती है
चाहे १/३ लीव लेनी पड़े
जिस दिन उसे सात बजे जाना हो
मुझे आठ बजे तक सरदर्द होता रहता है
पर यह भी सच है
कि कुछ दिन से
अबोला है
हमारे बीच |

मैं और सिकन्दर
सिकन्दर और मैं|
दोनों सोये लगभग अकेले
हर रात
अपने ऐ सी,रूम हीटर ,बिस्तर
और तकिये के साथ
पूरे जीते हुए विश्व के बाद भी
कोई नहीं था ,हमारे कमरों में
अंगरक्षकों के सिवा |
मैंने देखा अपने छत के पंखे को ,और
सिकन्दर ने सितारों को ,
एक पल को हमने झाँका
एक दुसरे की आँखों में,
और तय पाया
यूँ ही सोते हैं
विश्वविजेता !
और ! बहुत शिद्दत से ,
उन्होंने कहा ,
वो सब लोग ,जिन्हें तुम चाहते हो
और जिनके होने भर से
तुम्हे जीवंत लगती है ,
ज़िन्दगी अपनी ,असल में
बीजगणित का बड़ा सा एक्स हैं |
उसदिन जब बहुत समय बीत जायेगा ,
और लगभग ,
रीत ही चुका होगा
सब कुछ ,तुम्हारे हाथों से
बस ,बची रह जाएँगी
कुछ किरचें भर
तुम्हारे हाथों ,तुम्हारी आँखों में
अनुभव करोगे तुम ,की
उम्र भर , नहीं भरी गयी तुमसे
एक्स की ,सच्ची वेल्यु |
२.
यह एक धुंधली
थकी और बोझिल शाम है,
मेरे ख़ाली हाथों में
सिर्फ ,एक अँगूठी है ,
जिसे मैं कभी दायीं,
कभी बायीं तरफ
घुमा रहा हूँ ,
और सोचता हूँ
घूम रहा है ,समय भी
मेरे कहे
तुम्हे पाने के लिए ,
घर छोड़ने से कहीं पहले,
मैं जानता था,
मुझे तय करना है ,
एक वीरान रेगिस्तान |
रख लिए थे पहले ही
गुड,चना और थोडा सा पानी
पांवो में पहन लिए थे जूते भी
आँखों पर चढ़ा लिए थे ,
रंगीन चश्मे ,कि
दीखती रहे ,दुनिया हरी हरी |
कौन जाने ?
मिलकर लौटते हुए ,
पाँव तप जाएँ ,
आँख जलती सी लगे |
२. रोजों में थूक निगल
इमान से खारिज़ मैं,
लौट आया हूँ वापिस ख़ाली हाथ ,
जूते उतार दियें हैं ,
चश्मा रख दिया है ताक में ,
बचे हुए पानी से
आँख से किरच निकालनी है
कि ,सो सकूं
तुम्हारी पुकारती
आँखों के

सपने देखते |
और उस समय,
जब आप अकेले होते हैं,
और ,तलाश रहे होते हैं,
एक अवलंबन ,
एक सूने ,शीत कमरे में,
अपने ,तकिये के बिना
आप देख पाते हैं ,
कुछ खूंटियां
जिन पर आप टांग सकते हैं ,
अपनी टाई,कोट और पतलून ,
और ,यह बोध उपलब्ध होता है ,आपको
कि,आपके तख्तपोश के सिवा
कोई नहीं है,
जो झेल सके आपको
आपकी सोच के साथ |
और उस समय,
जब आप अकेले होते हैं,
और ,तलाश रहे होते हैं,
एक अवलंबन ,
एक सूने ,शीत कमरे में,
अपने ,तकिये के बिना
आप देख पाते हैं ,
कुछ खूंटियां
जिन पर आप टांग सकते हैं ,
अपनी टाई,कोट और पतलून ,
और ,यह बोध उपलब्ध होता है ,आपको
कि,आपके तख्तपोश के सिवा
कोई नहीं है,
जो झेल सके आपको
आपकी सोच के साथ |
और ,जिस दिन ,
कुल नौ रूपये चालीस पैसे देकर
रद्दीवाला,ले जायेगा ,
आपकी सारे जीवन में,
रची कविता ,
आप उसी कमरे में होंगे,
हवा में घुले -घुले से ,
थोडा सा हिस्सा ,
आक्सीजन ,थोडा सा नाइतरोजन ,
और ,बहुत सारा कार्बनडाईआक्साइड बने |
आप सुनेगें दस पैसे के लिए,
एक तकरार ,
अपने बेटे और रद्दीवाले के बीच ,
जिसमें आपका बेटा कहेगा
,"खुल्ले दस पैसे हैं नहीं"
और रद्दीवाला कहेगा ,
"यही तो कमाना है साहेब |"
हरे ,नीले ,काले या लाल ,
अक्षरों ,में लिखी ,
आपकी कविता ,
अंतत काम आएगी ,
मूंगफली लपेटने के |
आप गंगा में तैरती
अस्थियों सा अनुभव करेंगे ,
जिस दिन मूंगफली खाता -खाता कोई ,
अनायास ही ,
लिफाफा पढ़ कर कहेगा ,
वाह ! क्या शेर लिखा है यार !

Friday, April 5, 2013

अनिद्रा के तकिये पर सर रख,
बेहोश सोती है लड़की,
अर्धरात्रि के किसी अनचीन्हे पल में,
अपनी छाती पर टिक गये अपने ही हाथ को,
पा खोल देती है आँख,
बची रात में नींद तिलचिट्टों सी आँख में रेंगती है .

परिचित सह्याद्रियों के साथ के मील पत्थर,
स्मृतियों में कील से गढ़ते हैं,
रात गहराते किसी अदृश्य गंध सा,
सोते चेहरे पर मक्खियों की तरह बैठता है,
कोई अवांछित,परिचित स्पर्श,
नींद छत के पंखे के साथ घूमती है,
गोल ,काली और भूरी उन के गोले सी .

चेतना की परत को छूने लगती है,
छिपते सूर्य की रौशनी,
लड़की सैंडल के तलवे पर रखती है ऊँगली,
पूछती है सही जमीन का पता,
अगला कदम रखने को ,
मेट्रो की तीखी किनारी वाला कार्ड,
चढ़ने और उतरने की सही जगह बता देगा,
मिला तो .

लेम्प पोस्ट की रौशनी में चलते,
अपनी पदचाप से चौंक -नहीं डर जाती है लड़की,
मानती है मन्नत,
मत कहीं घर पहुँचने से पहले गुल हो जाए बत्ती,
अपने भीतर ही उग आये एक गहरा अँधेरा,
सारे अस्तित्व को घेर लेता है एक कुंडली दार अजगर,
टप्पे खाती फुटबाल सा कुछ,
पसलियों से बजता है धाड़ धाड़ .

घर लौटी लड़की सुनिश्चित नहीं होती लौट कर भी,
सोते हुए लेती है दो तकिये,
एक सर के लिए ,एक खुद के लिए .

आकाश परेशान है !

ऊँट के करवट लेने के दोचित्तेपन के बीच की सी मनोस्थिति में वक़्त गुज़रता गया . सोचा किया ,मेरे भीतर तुम्हारे होने की झिलमिल ने,तुम्हारी आँख नहीं छुई -तो किया क्या ? जनवरी की कोहरे भरी सुबह ,खिडकियों के कांच पर जमी होती है . शीशे को ऊँगली से छूते हुए ..डरता हूँ , कुछ लिखा ना जाए .मरियल पीली रौशनी ....बिना किसी स्निग्धता के आसपास के मकानों को छूती है ,वे कहते हैं ,इनदिनों दिन यूँ ही शुरू हुआ करते हैं

इनदिनों मैं आकाश देखता हूँ,
स्मृतिभ्रंश के किसी रोगी की तरह,

मैं हमेशा आकाश देखता आया हूँ,
उत्सुक बच्चों की तरह,
जो देखते हैं आकाश उनदिनों में भी,
जिन दिनों आकाश में पतंगे नहीं होतीं,
लाल पीले हरे रंग से बना कोई सपना,
चिड़िया की बगल में उड़ता रहता है .

मैं आकाश देखता हूँ ,और
दूर कहीं एक सोये ज्वालामुखी की भाप सी धुँध को,
मौसम और वक़्त से मार खाए,
मकानों पर उतरते ताकता हूँ,
सफेद ,नीली और स्याह चिन्दियों से बुने आकाश में,
बेहद पास के या ,
बहुत दूर चले गये चेहरे देखता हूँ ,
अस्वस्थ कंपन से मेरी उंगलियाँ,
नितान्त अस्थिरता से थामे रहती हैं बुर्श जैसा कुछ,
जमीन ओलों के मैले पानी से होती है गीली .

मैं आकाश देखता हूँ हर उस वक़्त,
जब चाहता हूँ मैं होना उदास,
सच ! कुछ ज्यादा नहीं करना होता उदास होने के लिए,
घास पर उल्टा लेट,
मैं आँखों को करता हूँ अतीतमय,
मिलाता हूँ आज के आकाश को ,
छुटपन की आँख में भरे किसी एक दिन के आकाश से .

(आकाश परेशान है ... मैं भी , दोनों छूते हैं एक दूसरे को आश्वस्त करते ..........कि कुछ नहीं बदला कहीं )
[ दो झूठों के बीच वार्तालाप .......भाग एक ]
पाता हूँ ,बाहर ही नहीं हैं नदी,
भीतर भी बहता है कुछ,
धीरे से मन नदी हो जाता है,
गाढ़े शहद सी मंथर गति से,
मैं तली से तंग मुहं को चलता हूँ,

रौशनी की एक धज्जी,
ठन्डे अन्धकार से भरे मेरे कमरे की,
चौखट पर फहराती है,
मेरे भीतर सारे तंतु,
अपने सन्नाटे को सुनते हैं,
तहदार अंधेरों में तुम्हारा होना,
अगम नदी में उतरने सी आलौकिकता सा,
रगों में बहते खून को एकाएक,
बुहारने लगता है पीछे की ओर,
समय की श्वेत पहरन पर,
गुलाबी स्मृति के गहरे लाल छींटें हैं .

जानता हूँ,
जितना होता हूँ स्मृति में,
उससे माशा भर भी कम नहीं होता द्वंद्व में,
सोचता हूँ ,मेरे एक स्वप्न में होने से,
कितनी आँखें भर जायेंगी किरकिराहट से,
स्वरहीन एकांत में,
मेरी पीठ में गढ़ी है टोपी वाली कील सी,
लौटने की अनुभूति,
मेरे सीने पर चढ़ी है एक जरकन,
उसे चाहिए दुनिया भर का सीसा अपने भीतर .
(यह सोचते सोचते आज का दिन निकला .......कल फिर पहाड़ चढ़ना है )