Friday, April 5, 2013

पाता हूँ ,बाहर ही नहीं हैं नदी,
भीतर भी बहता है कुछ,
धीरे से मन नदी हो जाता है,
गाढ़े शहद सी मंथर गति से,
मैं तली से तंग मुहं को चलता हूँ,

रौशनी की एक धज्जी,
ठन्डे अन्धकार से भरे मेरे कमरे की,
चौखट पर फहराती है,
मेरे भीतर सारे तंतु,
अपने सन्नाटे को सुनते हैं,
तहदार अंधेरों में तुम्हारा होना,
अगम नदी में उतरने सी आलौकिकता सा,
रगों में बहते खून को एकाएक,
बुहारने लगता है पीछे की ओर,
समय की श्वेत पहरन पर,
गुलाबी स्मृति के गहरे लाल छींटें हैं .

जानता हूँ,
जितना होता हूँ स्मृति में,
उससे माशा भर भी कम नहीं होता द्वंद्व में,
सोचता हूँ ,मेरे एक स्वप्न में होने से,
कितनी आँखें भर जायेंगी किरकिराहट से,
स्वरहीन एकांत में,
मेरी पीठ में गढ़ी है टोपी वाली कील सी,
लौटने की अनुभूति,
मेरे सीने पर चढ़ी है एक जरकन,
उसे चाहिए दुनिया भर का सीसा अपने भीतर .
(यह सोचते सोचते आज का दिन निकला .......कल फिर पहाड़ चढ़ना है )

No comments:

Post a Comment