Friday, April 5, 2013

गढ़ना मैं सीख लूँगा

तुम कभी गये हो ईंटों के भट्टे पर बरसात के दिनों में ?

सांचों से निकली घड़ी हुई सुंदर ईंटों के चेहरे,
बरसात,चेचक से भर देती है ,कि
बरसात का अपना काव्य है,
जिसे ईंट की देह पर वह लिखती नहीं,
केवल गढ़ती है .

साँची के स्तूप और सारनाथ के बुतों के बीच से गुज़रते,
पाया मैंने .....छूना लगभग लिखने को कहते हैं,
गढ़ना मैं सीख लूँगा बारिश होना सीखने के बाद,
किसी भी दिन .

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