Friday, April 5, 2013

तीखी,एक घूमती बरमी,
मेरे एकांत में सुराख करती है .

मैं खुश हूँ कि सुराख खोल देते हैं,
हवा के आने जाने को छेद,
एक दिन,इन्ही सुराखों से रिस कर आएगी,
नमी,प्रकाश और उष्मा भी .

दरअसल यह जानना कि,
बिना सुराख़ के आप नहीं कस सकते पेच,
किसी दरवाज़े के,
खोल और बंद कर सकने की सहूलियत सोचते हुए,
सीने की मासपेशियाँ आराम से घूमने देतीं हैं बरमी .

कसे हुए कब्जों से,
भीतर आ,तुम एक दिन कर सकोगी द्वार बंद,
सुरक्षित,
इन्हीं छेदों से बाहर देखते,
सहज हो जायेगी कोई स्वर एक साथ सुनने की प्रतीक्षा,
मेरे साथ तुम्हारी भी .

इन्हीं सुराखों से मैं लूँगा जहर भीतर,
बची रहेगी मेरी आत्मा तुम्हारे प्रेम के साथ,
किसी दीमक के बिना .

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