Friday, April 5, 2013

छठवां तुम ..............

मैं तुम्हें धन्यवाद कहना चाहता हूँ !

असीमित रुदन में घुली सारी कल्पना भी,
मेरा हाथ थाम,मुझे नहीं ला सकती थी,
इस ऊबी हुई,उदास अकेली विश्रांति की बगल तक .

झड़े पत्तों वाले नंगे वृक्षों के इस मौसम में,
जब कुछ वृक्षों ने तय किया है,
हरे लंगोट सा कुछ पहनना,
मैं एक अनिद्रा से भरी रात के बाद ,
अपनी आँखों के नीचे फ़ैल रहे स्याही के काले खेत देखता हूँ .

हथेली भर अँधेरे ,
उँगलियों में नापे जा सकते एकांत में ,
तुम्हे छू उग सकती सौम्यता की,
कल्पना करते मुझे सच लगता है,
मुझे अब कहना चाहिए तुम्हें धन्यवाद,कि
कल्पना कहती है तुम नहीं होतीं तो ,
जाने कैसी होती यह पृथ्वी ?

सिर्फ इसलिए पृथ्वी,आकाश वायु,जल और अग्नि के साथ,
धन्यवाद तुम्हारा भी .

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