Friday, April 5, 2013

जागता ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

मैं बहुत दिन से सोया नहीं ,कि
आँख का भार से झपक जाना होता सोना ,तो
मैं जागा ही नहीं कभी .

दरअसल जागने और सोने के अंतराल को,
कलाई घडी से नापते निकल गयी,
सो सकने की वह उम्र,
जब समय से उगे सूरज की पहली आँख छूती किरण,
गुस्ताख प्राकृति की छेड़ लगती थी,
और सुरमे सी आँख में फिरती रौशनी,
तालाब की भैंस को बाहर निकालते,
उचारी गयी जोर की टिचकारी,

अब दिन भर की उदासियों को,
अपनी उँगलियों से छू,
जब जा पाता हूँ सोने ,
मेरी आँख में तैरती रहती हैं ,
बिना पलक की मछलियां,
जिन्हें मूंद्नी नहीं पड़ती पलकें सोने को ,कि
पलकों का मूंदना होता सोना,तो
हर सुबह अंगडाई तोड़ उठती दुनिया .
सच जाग ही जाती .

यूँ भी कहाँ सोता है सच में कोई,
जब बैठा होता है ,
एक दूसरे को थपक सुलाने का ख्याल,
पलकों के भीतर .

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