सिकुड़ते और फैलते ,
रेटिना की शरारतों में ,
उसने कब मुझे पढ़ लिया ,
मुझे पता भी नहीं चला ,
लफ़्ज़ों से मेरा गला रेतते हुए ,
उसने पूछा ,"दर्द ?"
मैंने कोने में बैठे ,
बुद्ध की करुणामयी आँखों में झाँका ,
और कहा ,"नहीं |"
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उस दिन से ,
मैं रोज़ बुलाता हूँ तुम्हे ,
अपनी कविता में,जैसे
मरने से पहले कोई बुलाये ,
पादरी को ,
और कनफैशन किये बिना ,
उसे विदा करदे ,
एक कप काफी पिला कर
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